प्रथम सत्संगमें श्रीगुरुने एक साधकके माध्यमसे दी जागृत समाधिकी अनुभूति


मैं जुलाई १९९४ से ही नियमित ध्यानकी साधना करने लगी थी और इसी मध्य मुझे निर्विचार अवस्थाकी कुछ काल तक अनुभूति भी होती है; किन्तु मैं उस अवस्थामें अधिकसे अधिक समय रहना चाहती थी, जो सम्भव नहीं हो पा रहा था और इसकी मुझे अत्यधिक ग्लानि होती थी; तब भी उस अवस्थाकी कालावधिको बढाने हेतु मैं नियमित ध्यानकी साधना करती थी | ध्यान हेतु एकांतकी आवश्यकता होती है; अतः मैं दोपहर, ब्राह्म मुहूर्तमें यह सबसे दृष्टि बचाकर करनेका प्रयास करती थी, मुझे अपनी साधना या अनुभूतिका प्रदर्शन करना न पहले अच्छा लगता था और न आज ही अच्छा लगता है; किन्तु अब ईश्वरेच्छा मानकर यह सब उजागर करना पड रहा है | थोडे समयमें मुझे यह ध्यानमें आने लगा कि मुझे निर्विचार अवस्थामें अधिक समय रहने हेतु किसी सद्गुरुके मार्गदर्शनकी आवश्यकता है |
जब मैं अप्रैल १९९७ में सनातन संस्थाके प्रथम सत्संगमें गई तो मुझे एक विलक्षण अनुभूति हुई | वह सत्संगमें एक बडे मंदिरके प्रांगणमें हो रहा था जहां हम मात्र पाच साधक बैठे थे, अन्य भक्तजन मंदिरमें दर्शन-पूजन हेतु आ रहे थे और एक ३२-३३ वर्षीय गृहस्थ साधिका सत्संगका विषय ले रही थी | उनका सात वर्षीय पुत्र मन्दिरके प्रांगणमें स्वानन्दी होकर घूम-घूम कर खेल रहा था |
मैं सत्संगमें विषय सुनने हेतु बैठी और कुछ ही क्षणोंमें मेरा सूक्ष्म देह ऊपर उठ गया और मेरा ध्यान लगा गया | मेरे नेत्र खुले थे, मैं सब कुछ खुले नेत्रोंसे देख रही थी और सत्संगके शब्द भी सुन रही थी; यद्यपि विषय क्या है, इसमें मेरा ध्यान नहीं था और मैं एक विलक्षण अवस्थाका अनुभव कर रही थी | मेरा मन आनंदित एवं पुलकित था | खुले नेत्रोंसे सब कुछ निर्लिप्त होकर देखते हुए निर्विचार रहकर एक घंटे आत्मानन्दकी अनुभूति लेना, इसे शब्दोंमें व्यक्त करना सम्भव नहीं | मैं निर्विकल्प समाधिकी अनुभूति पाने हेतु गुरु ढूंढ रही थी और मेरे सर्वज्ञ सद्गुरुको मेरे मनकी इच्छा ज्ञात थी |
उस दिवस सत्संगके पश्चात् मैंने सोचा कि जिनके शिष्य ऐसी अनुभूति दे सकते हैं, वे सद्गुरु कैसे होंगे और मैंने परम पूज्य गुरुदेवसे साक्षात्कारकी इच्छा दर्शाई, तो उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें कहा कि वे मात्र साधकोंसे ही भेंट करते हैं; अतः मुझे अपना साधकत्व बढाना होगा, तभी उनसे साक्षात्कार संभव है एवं इस हेतु मुझे धर्मप्रसारकी सेवामें उनका सहयोग करना होगा । मैंने श्रीगुरुके दर्शन हेतु योग्य पुरुषार्थ, अपनी केंद्र सेविकाके निर्देशमें आरम्भ किया जिसके अन्तर्गत घर-घर जाकर सत्संग हेतु लोगोंको आमंत्रित करना, ग्रन्थ प्रदर्शनी लगाना इत्यादि सेवाएं आरम्भ की |
वस्तुत: उस सत्संगमें मुझे जागृत समाधिकी दिव्य अनुभूति हुई थी; वह भी एक ऐसे साधिकाके माध्यमसे जिनका आध्यात्मिक स्तर मुझसे तीस प्रतिशत कम था, यह मैं अपने आपको श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु नहीं बता रही हूं; अपितु मेरे श्रीगुरु उस ऊंचाईपर हैं कि वे किसी सामान्य साधकके माध्यमसे भी जागृत समाधिकी अनुभूति देनेमें सक्षम है, यह बताना चाहती हूं | संभवत: यदि मुझे उस दिवस ऐसी कोई दिव्य अनुभूति नहीं होती तो मैं पुनः उस सत्संगमें नहीं जाती; किन्तु गुरु, गुरु होते हैं उन्हें ज्ञात होता है, उनके शिष्यको क्या चाहिए !
मैंने अपने श्रीगुरुके ऐसे ही अनेक जड-चेतन, स्थूल-सूक्ष्म माध्यमोंसे ज्ञान एवं दिव्य अनुभूति ली है और इसे मैं अपने श्रीगुरुके निर्गुण निराले स्वरुप मानती हूं, जिन्होंने मुझे धर्म और अध्यात्मके स्थूल और सूक्ष्म पक्ष सिखाए हैं | गुरुतत्त्वकी इसी विशेषताके कारण, इस तत्त्वको एक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी तत्त्व मानकर शास्त्रोंमें स्तुति की गयी है | ऐसे ईश्वरीय तत्त्वके प्रतिनिधि स्वरुप हमारे श्रीगुरुके श्रीचरणोंमें मैं विनम्रतापूर्वक नमन करती और प्रार्थना करती हूं कि गुरु तत्त्वकी इस महिमा सम्पूर्ण विश्वके अन्तर्मनपर अंकित करनेकी हमें भक्ति, शक्ति एवं ज्ञान प्रदान करें जिससे गुरु-शिष्यकी यह शाश्वत, वैदिक एवं दिव्य परम्परा घर-घर, ग्राम-ग्राममें पुनः स्थापित हो पाए | – तनुजा ठाकुर (४.१०.२०१७)



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution