सूक्ष्म जगत


श्रीगुरुने सूक्ष्मसे दिए हमारे दिव्य सम्बन्धकी प्रतीति
आजके इस शुभ दिवससे सूक्ष्म जगतसे सम्बन्धित लेख श्रृंखलाका ‘जागृत भव’ गुटमें शुभारम्भ करने जा रही हूं, आजका दिन हमारे लिए अत्यन्त शुभ है; क्योंकि आज हमारे श्रीगुरुके श्रीगुरु भक्तराज महाराजके उत्तराधिकारी सन्त-शिष्य रामानन्द महाराजकी जयन्ती है, उनकी कृपा और प्रेमका सान्निध्य मुझ निकृष्टको भी कुछ काल प्राप्त हुआ है |
ईश्वर आज्ञा मान आजसे इस लेख श्रृंखलाका शुभारम्भ कर रही हूं | मैं अकर्ता बनकर, इसे लिख सकूं एवं ईश्वरको इस माध्यमसे समाजको जो भी सिखाना हो वे वैसे ही लेख लिखवाकर ले लें, यह इस तुच्छ भक्तकी उनके श्रीचरणोंमें प्रार्थना है | साथ ही इससे समाजका सूक्ष्म जगतसे सम्बंधित कुछ अज्ञान दूर हो पाए तथा समाज भी साधना कर पुनः अपनी शाश्वत वैदिक संस्कृतिकी स्थूल और सूक्ष्म थातीसे परिचित हो पाए, यह श्रीगुरुके श्रीचरणोंमें प्रार्थना करती हूं |
जैसा कि हमने आपको पूर्वके एक लेख श्रृंखला, मैं अपने श्रीगुरुसे क्यों जुडी, उसमें बता ही चुकी हूं कि मैं उनसे सूक्ष्म सम्बन्धी ज्ञानकी अपनी तृष्णाको तृप्त करने हेतु  उनसे जुडी थी और मेरे सर्वज्ञ श्रीगुरुने मेरी इस सूक्ष्म इच्छाको जानकार मुझे उस क्षेत्रमें ज्ञानप्राप्ति हेतु योग्य प्रयास करवाकर लिए और मुझ कुपात्रमें पात्रता निर्माण कर मुझे ज्ञान भी दिए, इस हेतु मैं उनके श्रीचरणोंमें अपनी मन:पूर्वक कृतज्ञता व्यक्त करती हूं | मेरे इस लेख श्रृंखलाको पढनेएक पश्चात् हो सकता है कुछ लोग मुझे अहंकारी और कुछ तो मुझे विक्षिप्तकी उपमा भी दे और जागृत भव गुटको छोड भी सकते हैं; क्योंकि सूक्ष्मका ज्ञान आजके मैकाले शिक्षित सामान्य व्यक्तिके लिए स्वीकार करना अत्यन्त कठिन है यह मुझे ज्ञात हैं; तथापि मेरे लिए ईश्वर आज्ञा सर्वोपरि है; अतः उन्हें साक्षी मानकर, इसे समाजके समक्ष प्रस्तुत करनेका प्रयास करने जा रही हूं |
इस लेख श्रृंखलामें मेरा सूक्ष्म जगतमें प्रवास, उससे सम्बन्धित मेरे अच्छे एवं अनिष्ट अनुभव व अनुभूतियां, सूक्ष्म इन्द्रियोंसे सम्बन्धित मेरे  शोध कार्य एवं इन सबसे सीखने हेतु तथ्य मिले, उसका मैं यथासंभव शब्दोंमें विवरण करनेका प्रयास करूंगी | ‘यथासंभव’ यह शब्द प्रयोग इसलिए किया क्योंकि सूक्ष्म जगत एवं उससे सम्बन्धित ज्ञान शब्दातीत है; अतः उसे सौ प्रतिशत शब्दोंमें प्रकट करना किसीके लिए भी सम्भव नहीं ! यहां एक विशेष तथ्यका उल्लेख अवश्य करना चाहूंगी कि यह ज्ञान अनुभूतिजन्य होनेके कारण, आध्यात्मिक स्तर एवं व्यष्टि भावपर भी आधारित है |
आजका यह प्रथम लेख मैं विघ्नहर्ता एवं प्रथम पूज्य गणेश, हमारे आराध्य भगवान् शिव एवं हमारे श्रीगुरु परम्पराके सभी ऋषि तुल्य सन्तोंके श्रीचरणोंमें नमन कर, अपने श्रीगुरुसे सम्बन्धित एक अनुभूतिसे आरम्भ करती हूं; क्योंकि गुरु संस्मरण मेरे लिए वेद पठन एवं ईश्वर वन्दना समान ही है और वैदिक संस्कृतिमें शुभ कार्यका शुभारम्भ ऐसे ही करते हैं |
मैं अपने श्रीगुरुसे क्यों जुडी इस सम्बन्धमें अपने कुछ अनुभव, आपको इसके पूर्व बताए ही हैं; किन्तु इनमें अधिकांश बौद्धिक स्तरके विश्लेषण थे | पूर्णत्व प्राप्त सन्तों एवं गुरुओंको यह ज्ञात होता है कि उनका शिष्य किसप्रकारकी अनुभूतिसे उनके मार्गदर्शनमें साधना करेगा; अतः वे उसे वैसी ही अनुभूति देते हैं |  हमारे श्रीगुरुके दर्शनके पूर्व ही, वे मुझे कुछ दिव्य अनुभूतियां देकर अपना बना चुके थे, स्थूल साक्षात्कार तो मात्र एक औपचारिकता थी | इस लेख श्रृंखलामें हम सर्वप्रथम ऐसी ही कुछ अनुभूतियां आपसे साझा करेंगे, उसके पश्चात् मेरा सूक्ष्म जगतमें प्रवास कैसे आरम्भ हुआ एवं अन्य तथ्य बताउंगी | लेखन करते समय कुछ शब्दोंकी वर्तनी  अनुचित टंकलेखनके कारण अयोग्य हो सकती हैं एवं कुछ व्याकरणके चूक भी हो सकते हैं, उस हेतु मैं आप सबसे पहले ही क्षमा मांगती हूं |
मुझे बचपनसे ही एक दृष्टान्त अनेक बार हुआ करता था और वह कुछ इसप्रकार था | मुझे लगता था कि एक बहुत सुन्दर एवं बहुत लम्बी ऊंचाईवाले व्यक्तिने मेरी उंगली थाम रखी है और मैं एक छोटी बालिका हूं और उनके साथ हंसते-बोलते नाचते-कूदते जा रही हूं | वह मार्ग बहुत लम्बा या अन्तहीन है एवं मार्गके दोनों ओर बहुत सुन्दर पुष्प खिले हुए हैं | मैं उनके साथ अत्यन्त आनन्दित हूं और इस मनोरम दृश्यका आनन्द लेते हुए जा रही हूं | मुझे लगता था कि वे लम्बे व्यक्ति मेरे पिताजी और वह बच्ची मैं हूं | मेरे पिताजीकी छत्रछायामें मैं जब तक थी; तब तक उन्होंने मुझपर दुःखकी कभी छाया भी नहीं पडने दी और रोनेकी बात तो जाने दें, वे मुझे उदास तक नहीं देख सकते थे | मेरा बाल्यकाल बहुत सुखद और आनंदमय वातावरणमें बीता था; अतः मैं उस दृश्यको अपने पिताजीसे जोडा करती थी; यद्यपि मैंने इसका उल्लेख कभी किसीसे नहीं किया था |
श्रीगुरुसे प्रथम साक्षात्कारके पश्चात् मुझे यह दृष्टान्त पूर्णत: स्पष्ट हो गया; जिस व्यक्तिको मैं अपना पिता समझ रही थी; वे मेरे जन्मदाता पिता नहीं; अपितु परम पिता और अनन्त ब्रह्माण्डके स्वामी, हमारे श्रीगुरु थे | वह सुन्दरसा मार्ग साधना मार्ग था, वह अन्तहीन सा दिखाई देनेवाला मार्ग मोक्षद्वारको जाता था एवं उन्होंने मेरा हाथ थामा था; अतः मैं निश्चिन्त और आनन्दित होकर जा रही थी | साधनामें होनेवाले आनन्दके कारण ही मैं नाच गा रही थी और मेरी अनुभूतियां वे पुष्प समान मुझसे मोक्षद्वार तक मार्गक्रमण करने हेतु आकृष्ट कर रही थीं |
मेरे पिताजीकी ऊंचाई ५’११  (फीट) थी और  हमारे श्रीगुरुकी सटीक ऊंचाई तो मुझे ज्ञात नहीं कितु ६’२ (फीट)से अधिक अवश्य हैं | उनकी अध्यात्मिक ऊंचाईके समक्ष मैं सदैव ही बालिका रहुंगी और रहना भी चाहती हूं; क्योंकि जैसे पुत्रीके युवा होनेपर पिता उसे पतिके घर भेजकर, उसे स्वयंसे स्थूलसे दूर कर देते हैं वैसे मैं अपने श्रीगुरुसे कभी दूर नहीं जाना चाहती हूं; अतः एक निर्लिप्त, अबोध एवं अज्ञानी बालिका बन, उनके सूक्ष्म सान्निध्यका सदैव ही लाभ उठाना चाहती हूं | मुझे वह आध्यात्मिक ऊंचाई नहीं चाहिए, जिससे वे मेरी उंगली छोड दें |
वे मेरे कौन है, इसका पूर्वाभास देनेवाले एवं प्रथम साक्षात्कारके पश्चात् उसकी पुष्टि करनेवाले मेरे शिव स्वरूपी श्रीगुरुके श्रीचरणोंमें मैं विनम्रतापूर्वक नमन, कर यह अनुभूति उनके श्रीचरणोंमें समर्पित करती हूं | -तनुजा ठाकुर  (२.१०.२०१७)



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