आश्रम निर्माणके समय कुछ महत्त्वपूर्ण घटक ध्यानमें रखकर इसे बनानेका प्रयास रहा है । इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है सात्त्विकता ।
जिन वस्तुओंका चयन अभी उपलब्ध सीमित धनसे किया जा रहा है, उसमें भी यह ध्यानमें रखा जा रहा है कि वह सात्त्विक हो ।
जैसे अभी हमें कुछ सनमाईकावाली कपाटिका (अलमारी) बनवाई तो यह ध्यानमें रखा गया कि उसका आकार एवं सनमाईकाका रंग और ‘पैटर्न’ दोनों सात्त्विक हों, जिससे वहां जो भी रहे, उसकी साधना हेतु पोषक वातावरण निर्माण मिले ।
जब सनमाईकाके चुनाव हेतु हम इसके विक्रय केन्द्रोंमें गए तो ज्ञात हुआ कि अधिकतर प्रचलित ‘पैटर्न’ राजसिक या तामसिक थे । ‘दुकानदार’ आजके प्रचलन अनुसार ही हमें सब लेने हेतु कह रहे थे । उन्होंने अपनी आपणिमें (दुकानमें) भी तामसिक ‘पैटर्न’का सबकुछ लगाकर रखा होता है ।
इन सबसे ध्यानमें आता है कि समाजको साधना सिखाना कितना अधिक आवश्यक है ? मैंने बहुत सम्भ्रान्त घरोंमें लगाए हुए आन्तरिक शोभाकी अर्थात गृहसज्जाकी वस्तुओंको तामसिक पाया है । इसलिए इस माध्यमसे भी समाजको कुछ सिखाया जा सके, इस हेतु सब स्थूल और सूक्ष्म स्तरपर शोध कर लगाया जा रहा है ।
आजकी आधुनिक शिक्षण प्रणाली अनुसार शिक्षित लोगोंद्वारा धर्म और साधनाको जीवनमें न उतारनेके कारण उन्हें अंशमात्र भी सूक्ष्म समझमें नहीं आता है ।
ईश्वर आश्रम निर्माण करनेके निमित्त मुझे बहुत कुछ सिखा रहे हैं एवं धर्मप्रसार और हिन्दू राष्ट्रकी क्या आवश्यकता है ? यह बताया । इस हेतु हम उनके चरणोंमें मनःपूर्वक नमन करते हैं ।
– (पू.) तनुजा ठाकुर, संस्थापिका, वैदिक उपासना पीठ
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