उत्तम सन्तति हेतु गर्भाधान संस्कारका महत्त्व (भाग – ३)


गर्भस्थापनके पश्चात अनेक प्रकारके प्राकृतिक दोषोंके एवं आनिष्ट शक्तियोंके आक्रमण होते हैं, जिनसे बचनेके लिए यह संस्कार किया जाता है । जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है । माता-पिताद्वारा खाये अन्न एवं विचारोंका भी गर्भस्थ शिशुपर प्रभाव पडता है । माता-पिताके रज-वीर्यके दोषपूर्ण होनेका कारण उनका धर्मनिष्ठ न होना, मादक द्र्व्योंका सेवन तथा अशुद्ध खानपान होता है । उनकी दूषित मानसिकता एवं अशुद्ध वास्तु व पितृदोष भी वीर्यदोष या रजदोष उत्पन्न करती है। दूषित बीजका वृक्ष दूषित ही होगा । अ‍तः मंत्रशाक्तिसे बालककी भावनाओंमें परिवर्तन आता है, जिससे वह दिव्य गुणोंसे संपन्न बनता है । इसलिए गर्भाधान-संस्कारकी आवश्यकता होती है ।
आपको बताया ही था कि दांपत्य-जीवनका सर्वोच्च उद्देश्य है – श्रेष्ठ गुणोंवाली, स्वस्थ, ओजस्वी, चरित्रवान और यशस्वी सन्तान प्राप्त करना । स्त्री-पुरुषकी प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है कि यदि उचित समयपर समागम किया जाए, तो सन्तान होना स्वाभाविक ही है; किन्तु गुणवान सन्तान प्राप्त करनेके लिए माता-पिताको नियोजन कर विचारपूर्वक इस कर्ममें प्रवृत्त होना पडता है। श्रेष्ठ सन्तानकी प्राप्तिके लिए शास्त्रीय विधि-विधानसे किया गया सम्भोग ही गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है । इसके लिए माता-पिताको शारीरिक और मानसिक रुपसे अपने आपको सिद्ध करना होता है, क्योंकि आनेवाली सन्तान उनकी ही आत्माका प्रतिरुप होती है। इसलिए तो पुत्रको आत्मा और पुत्रीको आत्मजा कहा जाता है ।



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