भारतकी प्रजातान्त्रिक व्यवस्थामें नेताओंकी न देशके प्रति निष्ठा रही, न समाजके प्रति और न ही अपने दलके प्रति ! जब जिस नेताकी इच्छा होती है वह अपनी रोटी सेंकने हेतु (अपने स्वार्थकी पूर्ति हेतु) एक दलके प्रति अपनी निष्ठाको त्यागकर दूसरे दलमें चला जाता है और राजनीतिक दल भी बिना उसकी पात्रता या उद्देश्यको जांचे, अपना उल्लू सीधा करने हेतु स्वार्थी नेताओंको अपने दलमें सहभागी कर लेते हैं, चाहे नया सदस्य इससे पूर्व ऐसे दलसे सम्बन्ध रखता था जिसकी विचारधारा, उनसे पूर्ण रूपेण विपरीत या भिन्न ही क्यों न हो ? यह क्रम प्रत्येक चुनावसे पूर्व सभी राजनीतिक दलोंमें देखने हेतु मिल सकता है ! ऐसे नीतिशून्य स्वार्थी नेता और राजनीतिक दल, क्या कभी प्रजा और राष्ट्रका भला कर सकते हैं ?
इस स्थितिको परिवर्तित करने हेतु हिन्दू राष्ट्रकी (सनातन धर्मराज्यकी) स्थापना करना अनिवार्य हो गया है, जहां त्यागकी भावनासे ओत-प्रोत राज्यकर्ताओं या नेताओंका मूल लक्ष्य प्रजा एवं राष्ट्रकी सेवा करना होगा ! (१४.१.२०१७ )
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