अप्रैल २०१३ में धर्मयात्राके मध्य बंगालके कोलकाता महानगरमें कोलकातामें मेरी सखीके घर जाना हुआ ।
उसके घर जानेपर मुझे वहां सांस लेनेमें कष्ट होने लगा । सूक्ष्म परीक्षण करनेपर ज्ञात हुआ कि उनके वास्तुमें अत्यधिक कष्ट था, जिसकारण मुझे ऐसा हो रहा था । वे एक वैश्य परिवारसे थीं और उनका वह घर पैतृक घर था एवं उनका संयुक्त परिवार था । यद्यपि सबकी रसोई पृथक थी । मुझे होनेवाले कष्टसे ज्ञात हो रहा था कि उनका वह भवन भुतहा था; इसलिए मैंने उससे उस घरके इतिहास और वहां रहनेवाले लोगोंके कष्टके विषयमें जानना चाहा । उससे वार्तालाप करते समय ज्ञात हुआ कि उनका यह भवन जो अब जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें था और उसे किसी प्रकार रहने हेतु ठीक किया गया था, वह सौ वर्ष पुराना था ।
उसमें प्रत्येक वर्ष किसी न किसी कुटुम्बके सदस्यकी अकाल मृत्यु अवश्य होती थी । यहांतक कि उसकी सास और उसकी प्राणघातक दुर्घटना पांच वर्ष पूर्व हुई थी, जिसमें उसकी सासकी तो मृत्यु हो गई थी और उसे भी मृत्युतुल्य कष्ट हुआ था और वह किसी प्रकार बच पाई थी ।
उसके पतिका व्यापार भी ठीकसे नहीं चलता था और उसके दस वर्षके पुत्रको ‘थाइरोइड’ नामक रोग हो गया था ।
मैंने उससे कहा कि या तो आप सब किसी सन्तके मार्गदर्शनमें साधना व सेवा करें या इस घरको तवरित त्याग दें ! उन्होंने कहा हमारे पति और ससुर तो किसी भी स्थितिमें साधना नहीं करेंगे वे जो परम्परागत साधना हमारे कुलमें होती है, वह भी नहीं करते हैं तो किसी सन्तके मार्गदर्शनमें साधना करेंगे, ऐसा लगता तो नहीं है । तो मैंने कहा उन्हें वास्तुशास्त्र अनुसार किसी नूतन बने घरमें जाने हेतु कहें !
उन्होंने वैसा ही किया ।
ध्यान रहे यदि घर बहुत पुराना हो गया हो और वह जीर्ण-शीर्ण हो जाए और उसमें अकाल मृत्यु होने लगे, अत्यधिक क्लेश होने लगे, व्यापारमें हानि होने लगे तो उस घरमें अनिष्ट शक्तियोंका अत्यधिक कष्ट है, ऐसा समझना चाहिए और उस घरको शीघ्र छोड देना चाहिए ।
हमारे श्रीगुरुके अनुसार कलियुगमें किसी वास्तुमें अधिकसे अधिक १०% कष्ट हो सकता है । यदि कष्टका प्रमाण ७% हो तो वह रहने योग्य नहीं होता है । मेरी उस सखीके घरमें भी ६% कष्ट था; इसलिए मैंने उसे या तो कुटुम्बके सब सदस्य योग्य साधना करें या वे घर छोड दें, ये दो विकल्प दिए थे ।
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