विदेशमें रहनेवाले हिन्दुओंकी दु:स्थिति, कारण एवं निवारण (भाग – ३)


वर्ष २०१३ में मैं इटलीमें एक जिज्ञासुके घरपर रुकी थी । विदेशमें रहनेवाले अधिकांश हिन्दुओं समान वे भी वहांकी प्रत्येक वस्तुकी स्तुति करते नहीं थकते थे । एक दिवस उन्होंने कहा, “यहांकी एक और अच्छी बात यह भी है कि हम एक साथ दो-ढाई माहका दूध लाकर स्टोरमें कहीं भी बिना प्रशीतकके (फ्रिज) रख देते हैं । वह ‘ज्योंका त्यों’ रहता है ।” मैंने उनसे प्रेमसे पूछा, “वैसे भैया ‘ताजा’ दूध उबालकर, यदि हम बिना प्रशीतक (फ्रिजके) रखें तो कितनी देर तक वह दूषित (खराब) नहीं होगा ? वे बोले “गर्मी हो तो छह घण्टेमें ‘खराब’ हो जाएगा ।” उस समय वहां भी ‘गर्मी’ पड रही थी । मैंने कहा, “तो ऐसा क्या कर सकते है कि बिना प्रशीतकमें रखे उसे तीन माह कहीं भी रखा जाए और वह ‘खराब’ भी न हो !” वे निरुत्तर थे । मैंने कहा, “एक ही उपाय है, उसमें कीटनाशक तत्त्व मिलाने पडेंगे, जिससे जो जीवाणु दूधको दूषित कर देते हैं, वे नष्ट हो जाएं और दूध दूषित न हो ! क्षमा करें, आप जिस दूधकी इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, वह शुद्ध नहीं, अशुद्ध दूध है । उसे ग्रहण करनेसे हमारे शरीरको भिन्न रोग हो सकते हैं, यह ध्यान रखें !” उन्होंने कहा, “आप सबकी समस्या यही है, आप विदेशकी वस्तुओंकी अच्छाइयोंको स्वीकार नहीं करते !”
उस समय इनकी दस वर्षीय पुत्रीको खानेकी नलीमें वर्षोंसे छाले होते थे; जिसकारण वे सतत चिकित्सककी औषधिपर निर्भर रहती थीं । उस बच्चीके उस कष्ट देखकर किसीका भी मन भर आए ! विदेशमें ९५% हिन्दुओंके बच्चोंको मैंने मध्यमसे तीव्र स्तरके अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट पाया है, जो भिन्न प्रकारके शारीरिक और मानसिक रोगोंका कारण बन उन्हें कष्ट देती हैं और अधिकांशतः यह कष्ट असाध्य होते हैं । जब हिन्दू विदेश जाते हैं तो उन्हें धर्मकी जानकारी नहीं होनेके कारण, वे सात्त्विक और तामसिक पदार्थोंमें भेद करनेमें असमर्थ होते हैं और विदेश तमोगुणी वस्तुओंकी प्रशंसा करते नहीं थकते हैं और इसे अपने बच्चोंको सेवन करने देते हैं । हिन्दू बच्चे मूलतः सात्विक होते हैं; इसलिए ये तमोगुणी खाद्य सामग्री उन्हें रोगी बना देती हैं । (क्रमशः)



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