उत्तर बडा सरल है, तुलसीदासजीने हनुमान चालीसामें लिखा है, ‘भूत-प्रेत निकट नहीं आवे महावीर जब नाम सुनावे’ तो क्या ये लिखनेवाले सन्त शिरोमणि तुलसीदासजी तान्त्रिक थे ? कदापि नहीं ! उन्होंने तो हनुमानजीकी विशेषता बताई है; एक सरलसा सिद्धान्त जान लें ! यदि आप योग्य प्रकारसे साधना करते हैं, तो इष्ट और अनिष्टकी जानकारी साथ-साथ होती है, गुरु या ईश्वर उसकी जानकारी आपको साथ-साथ ही देते हैं । धर्मशिक्षण अन्तर्गत यदि मैं इष्ट शक्तियोंके विषयमें आपको जानकारी देती हूं तो अनिष्ट शक्तियोंसे आक्रमणके कारण और उनसे रक्षण, इसके विषयमें भी बताना हमारा धर्म है । कोई व्यावहारिक जगतसे सम्बन्धित विज्ञानको जब पढाया जाता है तो सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा स्रोतों या शक्तियोंके विषयमें बताया जाता है, वहां शिक्षक ऐसा थोडे ही कहते हैं कि हम आपको एक ही प्रकारकी शक्ति या ऊर्जाके विषयमें बताएंगे तो अध्यात्ममें अनिष्ट शक्तियोंकी जानकारी क्यों नहीं देनी चाहिए ? हमारे अध्यात्मविदोंने स्पष्ट शब्दोंमें इसकी जानकारी पिछले अनेक शतकोंसे नहीं दी, आज इसीका परिणाम है कि सामान्य व्यक्ति अनिष्ट शक्तियोंके कष्टसे पीडित है; अतः समाजको आज इसके विषयमें शिक्षित करनेकी नितान्त आवश्यकता है और यही मैं कर रही हूं ! इसके लिए तान्त्रिक साधनाकी आवश्यकता नहीं, विशुद्ध वैदिक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रक्रियामें (आत्मसाक्षात्कारकी प्रकियामें) देव और असुर दोनोंकी जानकारी स्वतः ही प्राप्त हो जाती है ।
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