धर्म एवं साधनाविहीन व्यक्तियोंको वृद्धावस्थामें सन्तानोंसे मिलता है अधिक दुःख !


एक सेवानिवृत्त व्यक्ति हमारे सत्संगमें आए थे । सत्संग समाप्त होनेपर वे अपने पुत्रसे कैसे त्रस्त हैं ?, यह बताने लगे । मैंने उनसे पूछा, “क्या आप साधना करते हैं ?, तो उन्होंने कहा, “मुझे अपनी चाकरीसे (नौकरीसे) कभी समय ही नहीं मिला !”

जो कहते हैं कि साधना करने हेतु समय नहीं मिला, वस्तुत: उन्हें साधनामें रुचि ही नहीं होती है या उसका महत्त्व ज्ञात नहीं होता । यदि कोई व्यक्ति युवावस्थामें साधना नहीं कर पाता है या उसके लिए समय नहीं निकाल पाता है तो वृद्धावस्थामें उसे अपनी सन्तानोंसे कष्ट होनेकी ९०% आशंका होती है; क्योंकि कलियुगमें अधिकांश सम्बन्धोंसे दुःख मिलनेकी आशंकाएं अधिक होती हैं एवं साधनाके अभावमें अनिष्ट शक्तियां भी अधिक कष्ट देती हैं और प्रारब्धकी तीव्रताके कारण भी दुःखोंका भान अधिक होता है । साधना व धर्मपालन सुखी जीवनकी कुंजी है; इसलिए बाल्यकालसे ही साधना करें एवं अपनी सन्तानोंको भी करवाएं !



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