जब राष्ट्र और धर्मका अस्तित्त्व ही नहीं रहेगा तो मैं अपने सौम्य छविका क्या करुंगी ?


जब भी मैं किसी व्यक्ति या पक्षके राष्ट्रद्रोही या धर्मद्रोही कृत्योंके बारे में कुछ भी साझा करती हूं तो उस व्यक्ति या पक्षके व्यक्ति मुझे तुरंत यह सुझाव देते हैं कि आप ऐसा न करें, इससे आपकी आध्यात्मिक छवि धूमिल हो जाएगी । तो एक सरल सा तथ्य जान लें, अध्यात्मका मूलभूत सिद्धांत अपने ‘स्व’का लय करना है न कि अपनी छविका पोषण करना, जो आजके अनेक धर्मनिरपेक्ष हिन्दू धर्मगुरु कर रहे हैं, जिससे वैदिक सनातन धर्मको क्षति पहुंचे और जिससे हमारी भारत माताकी विडम्बना हो । ऐसे किसी भी कुकृत्यका पुरजोर खण्डन करना चाहिए और वही मैं करती हूं । जब राष्ट्र और धर्मका अस्तित्त्व ही नहीं रहेगा तो मैं अपने सौम्य और आध्यात्मिक छविका क्या करूंगी ?

आध्यात्मिक होनेका अर्थ अन्यायको नेत्र मूंदकर देखना नहीं है अपितु जो अनुचित हो रहा हो उसके बारेमें जन जागरण कर योग्य उपाय करना है । हमारे यहां अनेक देवता और अवतारोंने यह कार्य कर पूजनीय स्थानको पाया और जिन संतोंने धर्मसंस्थापनाका कार्य किया उन्हें भी हम अंशावतार मान श्रेष्ठतम स्थान देते हैं । हमारे श्रीगुरु वही कर रहे हैं और हम सब उनकी वानर सेना हैं जो अपनी क्षमता अनुसार उसमें तुच्छसा योगदान देनेका प्रयास कर रहे हैं । हमारे अनेक धर्मग्रन्थोंमें जैसे भगवद्गीता, रामायण, महाभारतमें राजधर्मकी शिक्षा दी गयी है, तो यह क्या नया सिद्धान्त बताकर समाजको दिशाहीन किया जाता है कि अध्यात्मविदको राजनीतिमें होनेवाली कुकृत्योंका विरोध नहीं करना चाहिए, यथार्थमें राजसत्तापर धर्मसत्ताका पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए और पुनः कहती हूं, मेरी छविकी चिंता न करें, उसकी चिंता करनेके लिए मेरे आराध्य हैं, जो मेरा सतत स्थूल और सूक्ष्म दोनोंसे मार्गदर्शन करते रहते हैं और मेरे लिए उनकी दृष्टिमें मेरी छवि अच्छी होनी चाहिए, यह अधिक महत्व रखता है और मेरे सर्व प्रयास उसी निमित्त होते हैं । – तनुजा ठाकुर



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