भारतीय हिन्दुओंका विदेश गमन – वरदान या अभिशाप ?


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विगत वर्ष धर्मयात्रा अंतर्गत विश्वके कुछ देशोंमें जाना हुआ । विदेश जानेके पश्चात् कुछ प्रमाणमें यहांकी अपेक्षा हिन्दुओंको अपने धर्मके प्रति अधिक सजग देखा। नेपालको छोडकर दुबई, सिंगापूर, थाईलैंड, जर्मनी, इटली, ऑस्ट्रिया एवं स्विट्ज़रलैंडमें जानेके पश्चात् भौतिकतावाद किसे कहते हैं, यह समझमें आया।

मैंने ऐसा पाया कि दो वर्गोंके भारतीय हिन्दुओंका विदेश जाना होता है, एक वह मध्यमवर्गीय है, जिनके जीवनका ध्येय धन अर्जन होता है चाहे विदेश जाकर उन्हें शौचालयकी स्वच्छताकी ही चाकरी क्यों न करना पडे और दूसरा नव धनाढय, वह मध्यम वर्ग जो पाश्चात्यवाद और आधुनिकतावादमें रंग चुका है, उसके लिए विदेश जाना और वहांकी नागरिकता प्राप्त करना गर्वकी बात होती है।

दो-तीन पीढी पश्चात् ऐसे अप्रवासी भारतीय हिन्दूके बच्चे जिनकी जडें भारतसे उखड चुकीं होती हैं और वे वहांके नागरिक बन चुके होते हैं, अपने मूल ग्रामके विस्मरणके कारण भ्रमित होते हैं, उन्हें यह समझमें नहीं आता है कि वे किस संस्कृति और धर्मका अनुसरण करें, यदि उनके माता-पिता किसी संत परम्परासे न जुडे हों तो वे नाम-मात्रके हिन्दू रह जाते हैं।

आज विदेशोंमें भारतीय भोजन, मसाले, फल इत्यादि सहज उपलब्ध होते हैं; अतः इस सुविधाके कारण हिन्दुओंको भारत पुनः आनेका औचित्य नहीं लगता और न उन्हें यहां आनेकी इच्छा होती है।

आज भारतके नगरोंके स्त्री एवं पुरुष ही कहां भारतीय परम्परा अनुसार वस्त्र पहनते हैं; अतः अप्रवासी भारतीय वस्त्रसे तो विदेशी हो चुके होते हैं, विवाह या किसी विशेष आयोजनमें वे अल्प समयके लिए भारतीयताका मात्र प्रदर्शन करें हेतु भारतीय परिधान पहनते हैं।

अप्रवासी भारतीयोंके भाषाके विषयमें ऐसा कहा जा सकता है कि जो पीढी यहांसे जाती है वह तो अपनी भाषाका सम्मान करती है; परन्तु वहां पले-बडे उनके बच्चे थोडी बहुत मातृभाषा मात्र बोल पाते हैं, उन्हें हिन्दी या अपनी मातृभाषा लिखना पढना नहीं आता है और माता –पिता भी इस बातको विशेष महत्त्व नहीं देते हैं।

किसी विचारकने कहा है कि :

वेशोभाषा सदाचारः रक्षणीयं इदं त्रयम् ।

अन्धानुकरणमन्येषाम कीर्तिकरमुच्यते ।।

अर्थ : वेशभूषा, भाषा (स्वभाषा, मूल मातृ भाषा – संस्कृत एवं राष्ट्रभाषा – संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ) एवं वैदिक संस्कृति अनुसार धर्माचरण, इन तीनोंका रक्षण परम आवश्यक है। संस्कृतिके प्रति भाव प्रकट करनेवाले इन तीनों सूत्रोंकी अवहेलना कर दूसरोंका अंधानुकरण करनेसे अपयश प्राप्त होता है।

धर्मशिक्षणके आभावमें इन तीनोंका अवहेलना विदेशमें रह रहे हिन्दुओंसे सहज ही होता है जिसका उन्हें भान भी नहीं होता और उनकी आनेवाली पीढी वैदिक धर्मसे दूर जानेके कारण असाध्य रोग, व्यसन एवं अनेक प्रकारके कष्टोंसे पीडित हो जाती है, ऐसेमें धर्मको त्याग देना तो और भी सहज तथ्य हो जाता है। इस प्रकार विदेश जानेवाले हिन्दू अपने मूल स्थानका परित्याग कर क्षणिक सुख, समृद्धि हेतु अपने आनेवाली पीढीको अधर्मके पथपर अग्रसर कर देते हैं। यूरोप और दुबईमें यद्यपि मैंने यह पाया है कि अधिकांश हिन्दू रविवारको मन्दिर जाते है; परन्तु वह भी मात्र एक दिखावटी कर्मकाण्ड ही होता है और उस कृतिमें धर्माचरण और साधनाके प्रति गंभीरताकी झलक नहीं दिखाई देती है, यह करना भी उनके लिए परदेसमें आवश्यक होता है; क्योंकि इस सामूहिक कृतिसे उनकी स्वार्थपूर्ति सिद्ध होती है।

हमारे देशमें यदि सभीके जीविकोपार्जन हेतु योग्य अवसर मिलें, बुद्धिजीवी वर्गको उनकी बुद्धिके अनुरूप अपनी प्रतिभाका सदुपयोग करने हेतु योग्य वातावरण मिले तो सम्भवतः भारतसे हिन्दुओंका विदेश गमन निश्चित ही न्यून हो जाएगा, इस हेतु हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना अपरिहार्य है !

आज ‘हिन्दुओंको भारतका आध्यात्मिक महत्त्व क्या है ?’, तथा “विदेश जानेसे उनकी आनेवाली पीढीको किस प्रकारसे हानि हो सकती है ?’, इत्यादि बताना अत्यधिक आवश्यक है !

विदेशमें सर्वत्र तमोगुणका प्राबल्य होनेके कारण साधना करना और धर्माचरण करना अत्यधिक कठिन होता है, अनेक हिन्दुओंने मुझसे स्वयं कहा है कि हमने जाने अनजाने गौमांसका सेवन (भक्षण) किया है, जिससे हमारा धर्म भ्रष्ट हो चुका है, तो ऐसे धन और ऐश्वर्यका क्या लाभ जिससे हमारा धर्म ही भ्रष्ट हो जाए और हमारी आनेवाली पीढी धर्मसे विमुख हो जाए !

विदेश जाकर प्रवचनोंके माध्यमसे यह बतानेका मैंने प्रयास किया कि उनका भारतसे जुडे रहना क्यों आवश्यक है ? अहिन्दू देशमें रहकर भी वे साधना और धर्माचरण कैसे कर सकते हैं ? भारत शब्दका अर्थ है : जहां तेज तत्त्वकी साधना करनेवाला रहता हो; अतः हिन्दू अपनी तेजस्वितासे सर्वत्र सूक्ष्म भारतका निर्माण कैसे कर सकते हैं और आनन्दका तथ्य यह है कि कुछ हिन्दुओंने मेरे बताए हुए सूत्रोंका गंभीरतापूर्वक पालन करना आरम्भ कर दिया है, हो सकता उनके इसी प्रयाससे उन देशोंमें हिन्दू राष्ट्रकी नींव निकट भविष्यमें रखी जा सके ! -तनुजा ठाकुर



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