कुछ समय पूर्व मैं देहलीके एक वृद्धाश्रममें प्रवचन हेतु गयी थी तो मुझे ज्ञात हुआ कि वहां रहनेवाले अनेक वानप्रस्थियोंकी सन्तानें उच्च शिक्षित हैं एवं कुछ तो विदेशमें उच्च पदपर किसी बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानमें कार्यरत हैं ! वहांके कुछ वानप्रस्थी अपनी सन्तानोंको उन्हें वृद्धावस्थामें अनदेखी करने हेतु कोस रहे थे !
आजके हिन्दू माता-पिता अपनी सन्तानोंको बाल्यकालसे ही मात्र धन अर्जित करनेके ‘गुर’ सिखाने हेतु उन्हें शिक्षित करते हैं, ऐसेमें यदि उनकी स्वार्थी सन्तानें अपने माता-पिताकी सेवा वृद्धावस्थामें न करे, तो इसमें आश्चर्य कैसा ? धर्म और साधनाविरहित सन्तानोंको मात्र स्वयंकी सुखकी ही चिन्ता होती है, ऐसेमें वृद्ध माता-पिताका उन्हें बोझ लगना या उनकी सेवा करना, उनसे बातें करना, उनके लिए समय निकालना जैसे कर्मका व्यर्थ लगना तो स्वाभाविक ही है ! अब बबूलके बीज बोएंगे तो उसपर आमके फल कैसे आ सकते हैं ? (७.८.२०१६)
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