कलिकाल में ईश्वरप्राप्ति हेतु देहधारी सद्गुरु परम आवश्यक ! ऐसा क्यों ?
प्रसार के दौरान श्रीगुरु ने अनेक साधक, उन्नत एवं संतोंसे मिलने का सौभाग्य दिया और उस दौरान हुए अनुभव मुझे भान हुआ कि बिना गुरु कम से कम कलि काल में शीघ्र गति से अध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं ! कलिकाल में अनिष्ट शक्तियों का कष्ट सर्वाधिक है और ये अनिष्ट शक्तियां साधकों को अपने वश में कर अपना साधना बल बढाने का प्रयास करती हैं और इनके आक्रमण इतने सुक्ष्म होते हैं कि साधक को समझ में भी नहीं आता कि कब वह साधना पथ से च्युत हो अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में चला गया ।
कुछ संप्रदाय के उन्नत साधकों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ उन सम्प्रदायों में अब कोई संत नहीं अतः साधक का मार्गदर्शन करने वाला उन सम्प्रदायों के संस्थापकों के लिखे ग्रन्थ हैं । ऐसे सम्प्रदायों की स्थति सर्वाधिक दयनीय है क्योंकि उनमे कुछ जिज्ञासु साधान पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं परन्तु सांप्रदायिक बंधन उन्हें आगे नहीं जाने देती और वे तड़प कर रह जाते हैं। ( वास्तविकता मैं संप्रादियक बंधनों में बंध अध्यात्मिक प्रगति न कर पाने वाले साधकों ने सम्प्रद्य को छोड़ भी दिया तो उन्हें पाप नहीं लगता परन्तु सामाजिक बहिष्कार का डर उन्हें क्षत्रवृत्ति यह करने नहीं देता और उनका मनुष्य जीवन व्यर्थ हो जाता है )
कुछ साधक जो ५०% स्तर से ऊपर होते हैं उन्हें विश्वमन और विश्वबुद्धि से ज्ञान प्राप्त होने लगता हैं और सूक्ष्म का ज्ञान भी होने लगता है और इस प्रक्रिया में सद्गुरु न होने के कारण उनका सूक्ष्म अहम् बढ़ जाता है और वे अनिष्ट शक्तियों के नियन्त्रण में कब चले जाते हैं यह उन्हें भी पता नहीं चलता । चेन्नईमें एक साधकने बडे आत्मविश्वाससे कहा कि मैं ब्राह्मण हूँ और प्रतिदिन संध्या करता हूंं और कोई साधना की मुझे आवश्यकता नहीं परन्तु सत्य स्थिति यह थीकि उस साधक की साधना उनके ही घर में रह रही अनिष्ट शक्तियां खींच लेती थीं, जब मैंने उन्हें यह बात बताई तो अहम् के कारण पहले वे मेरी बात सुन तिलमिला गए और तर्क करने लगे। जब मैंने उन्हें जहांं वे साधना करते थे वह स्थान दिखाने को कहा तो उन्हें आश्चर्य हुआ की उनके संपूर्ण घर में एक वही स्थान था जिसमे अनिष्ट शक्तियों के सूक्ष्म आक्रमण के स्थूल परिणाम दिख रहे थे । कुछ क्षणों के लिए वे नि: शब्द हो गए और तत्पश्चात स्वीकार किया कि पिछले दो वर्ष से उन्हें संध्या करने में अनके अड़चन आ रही है ।
एक साधक जिनके कोई गुरु नहीं थे उन्होंने मेरी साधना में भी मार्गदर्शन किया था परन्तु दो वर्ष पहले उन्होंने स्वतः ही स्वीकार किया कि वे माया के जाल में फंस गए और साधना में नीचे चले गए और वास्तविकता भी यही थी ।
कुछ संतों (क्षमा करें वास्तविकता में आध्यामिक परिभाषा में वे संत नहीं थे क्योंकि उनका स्तर ६०% ही था और संत कम से कम ७०% स्तर के होते हैं और कुछ काल उपरांत वे ४५% स्तर तक नीचे आ गए ) के ग्रन्थ पढने पर ध्यान में आया की आरंभिक काल में उनकी लिखी पुस्तकें में अध्यात्मिक चैतन्य का कुछ प्रमाण था परन्तु गुरु के पद पाने के पश्चात उनकी साधना में गिरावट आ गयी और उनके लिखे पुस्तकों को पढने से काली शक्ति प्रक्षेपित होती थी और ऐसे संतों ने वैदिक सनातन धर्मं के विरुद्ध बातों को अपनी पुस्तकों में सम्मिलित किए, ऐसे संत के कोई गुरु नहीं थे अर्थात वे निर्गुरे थे और परिणाम स्वरुप मांत्रिकों ने (उच्च कोटी के बलाढ्य आसुरी शक्ति ) उनकी मन और बुद्धि पर अपना नियत्रण कर लिया था , आज उनके तथाकथित शिष्यों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है !!
पहले गुरुकृपा पाने के लिए साधना करनी पड़ती है तत्पश्चात गुरुकृपा बनाये रखने हेतु साधना करनी पड़ती है अर्थात गुरुकृपा का प्रवाह अखंड बनाये रखने हेतु साधना की अखंडता परम आवश्यक है ! -तनुजा ठाकुर
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