वैदिक सनातन धर्ममें सूक्ष्म लोकोंकी व्याप्ति सप्त लोक (भू, भुव, स्वर्ग, महा, जन तप और सत्य लोक ) एवं सप्त पाताल तक की है और अन्य धर्ममें (सारे कलियुगी हैं अतः पंथ कहना उत्तम होगा ) लोकोंकी व्याप्ति स्वर्ग तक ही है। आखिर जितने संस्थापककी आध्यात्मिक क्षमता होगी उतने ही तो उनकी सूक्ष्मकी जानकरी और सूक्ष्म जगतमें उनकी उतनी ही तो व्याप्ति होगी न ! संस्थापक ही बेचारे स्वर्गके आगे न जा पाये हैं तो आगेके लोकोंके विषयमें कैसे बताएंंगे, इससे पुनः वैदिक धर्मकी श्रेष्ठता और व्यापकता दोनोंका ही बोध होता है !! वैदिक शास्त्र अनुसार स्वर्ग लोक तकके लोकको पहुँचने वालेको पुण्यात्मा कहता और उसके आगेके लोकमें प्रवास करनेवालेको दिव्यात्मा !! पर क्या वैदिक धर्म विरुद्ध पंथ बना सचमें वे पुण्यात्मा भी रहे होंगे क्या ? जरा सोचें !!! ऐसे सभी धर्मसंस्थापक निर्गुरे थे और स्वयं घोषित संत या अवतार थे इसलिए किसीने कहा गोमांस ग्रहण कर उपवास तोड़ो, किसीने कहा वेदोंमें जो लिखा है वह अयोग्य है, किसीने कहा पितरोंके लिए कुछ भी करनेकी आवश्यकता नहीं क्योंकि उनका अस्तित्त्व नहीं होता, किसीने कहा पुनर्जन्म नहीं होता, किसीने कहा मृत्यु उपरांत तुरंत जन्म हो जाता है, किसीने कहा संस्कृतके स्थानपर पाली और प्राकृतमें ग्रंथ लिखो और उन भाषाओंको प्रचलित करो, किसीने कहा मूर्ति पूजा पाप है ! कोई कहता है मात्र वेद एकमात्र धर्मग्रंथ शेष मन गढंत है अर्थात शेष सर्व ग्रंथ व्यर्थ है !! और कलियुगी लोग ऐसे लोगोंको अवतार और संत कहते है, और ऐसा धर्म विरुद्ध सिद्धांतोंका पालन करनेवाले एवं सनातन धर्मपर सतत आघात करनेवाले सब भाई- भाई है !! अर्थात् सर्व धर्म एक है ! वाह रे ! कलियुगके लोगोंकी विवेकशीलता !!!-तनुजा ठाकुर
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