जो मात्र परमार्थका विचार करे वे ही सन्त कहलानेके अधिकारी होते हैं !


कुछ दिवस पूर्व मैं परशुराम जन्मस्थलीके महन्त परम पूज्य बद्री बाबाके निवास स्थानपर गई थी, जिसे वे ‘कुटिया’ कहते हैं । वह सचमें कुटिया ही है; क्योंकि उसमें मात्र जीवनके लिए उपयोगी अति आवश्यक वस्तुएं ही हैं । वे खरे अर्थोंमें एक त्यागी व्यष्टि सन्त हैं । उस कुटियामें दो कक्ष नीचे हैं और एक बडा कक्ष ऊपर है, जो उनके अनुसार बाहरसे आनेवाले भक्तोंके रात्रि निवास हेतु उन्होंने बनाया है । मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा, “बाबा, यहां आपने शौचालय नहीं बनवाया है क्या ?” उन्होंने कहा, “नहीं बेटी, मैं तो चार बजे उठकर जंगलमें चला जाता हूं, भ्रमण भी हो जाता है और नित्यकर्मसे भी निवृत्त हो लेता हूं; किन्तु अब कुछ युवतियां बाहरके जनपदोंसे आने लगी हैं, उनके लिए एक प्रसाधन गृह बनवानेका सोच रहा हूं ।” ऐसे होते हैं सन्त, इस आयुमें भी अपना कोई विचार नहीं, भक्तोंका विचारकर उनके लिए प्रसाधनगृह बनवानेका सोच रहे हैं । उनकी इस परमार्थी वृत्तिसे यह शास्त्र वचन सहज ही ध्यानमें आ गया –
परतापच्छिदो ये तु चन्दना इव चन्दनाः ।
परोपकृतये तु पीड्यन्तेकृतिनो हि ते ॥
संतस्त एव ये लोके परदुःखविदारणा: ।
आर्तानामार्तिनाशार्थं प्राणा येषां तृणोपमाः ॥
तैरियं  धार्यते  भूमिर्नरै: परहितोद्यतै: ।
मनसो यत्सुखं नित्यं स स्वर्गो नरकोपमः ॥
तस्मात् परसूखेनैव साधवः सुखिनः सदा ।
अर्थात जो चन्दन वृक्षकी भांति दूसरोंके तापको दूर करके उन्हें आह्लादित करते हैं तथा जो परोपकारके लिए स्वयं कष्ट उठाकर, दूसरोंके दुःखोंका नाश करते हैं, वे ही सन्त हैं तथा पीडित जीवोंकी पीडा दूर करनेके लिए जिन्होंने अपने प्राणोंको तिनके समान न्योछावरकर दिया है । जो मनुष्य सदा दूसरोंकी भलाईके लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उन्होंने ही इस पृथ्वीको धारणकर रखा है । जहां सदा अपने मनको ही सुख मिलता है, वह स्वर्ग भी नरकके समान है; अतः साधु पुरुष सदा दूसरोंके सुखसे ही सुखी होते हैं ।


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