साधक मात्र साधक होता है, स्त्री या पुरुष नहीं होता !


पुरुष साधक जब ‘उपासना’के आश्रममें आते हैं तो उनमेंसे अनेक, आरम्भमें  अत्यधिक अस्वच्छ एवं अव्यवस्थित रहते हैं, उन्हें हमें स्वच्छ एवं व्यवस्थित रहने हेतु बार-बार कहना पडता है । एक बार इसी क्रममें एक पुरुष  साधकको जब हम इस विषयमें दृष्टिकोण दे रहे थे तो उन्होंने कहा, “स्वच्छता और व्यवस्थितता स्त्रियोंका गुण है, वह हममें नहीं आ सकता ।”

अध्यात्ममें हम मात्र साधनारत जीवात्मा होते हैं, न कि स्त्री या पुरुष; अतः अपने दोषोंको साधनामें बाधक तत्त्व समझकर, दूर करनेका प्रयास करें तभी उस निर्विकार ईश्वरसे एकरूप होना सम्भव होगा । जब हम बाह्य रूपसे व्यवस्थित रहते हैं तो यह संस्कार अन्तर्मनमें दृढ हो जाता है; परिणामस्वरूप हम सर्व शारीरिक कार्य व्यवस्थित रूपसे करते हैं, जैसे यदि उठनेके पश्चात बिछावन समेटना हो और उस कृतिको हम प्रतिदिन व्यवस्थित करते हैं तो हम धीरे-धीरे अन्य कृतियोंको भी व्यवस्थित करने लगते हैं । इसप्रकार एक छोटीसी कृतिको व्यवस्थित करनेसे हम अपनी वृत्तिमें परिवर्तन ला सकते हैं ।

उसीप्रकार स्वच्छता, पवित्रतासे पूर्वका चरण है । स्वच्छ रहनेसे हमें अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट अल्प प्रमाणमें होता है तथा यह सात्त्विकता बढानेमें पोषक होता है । स्वस्थ शरीर एवं वास्तु (जहां हम रहते हैं), हमें प्रसन्नचित्त रखनेमें सहायता करते हैं और इससे देवत्त्व भी शीघ्र निर्माण होता है । अस्वच्छ देह एवं वास्तुमें अनिष्ट शक्तियां सहज ही वास करती हैं, वे ये नहीं देखती हैं कि वह स्त्रीका देह है या पुरुषका या वहां कौन रहता है ?; अतः चाहे आप स्त्री हों या पुरुष, स्वच्छ एवं व्यवस्थित रहें !  – तनुजा ठाकुर



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