समष्टि साधना सम्बन्धी दृष्टिकोण (भाग – ४)


समष्टि साधना अर्थात समाजको धर्म सम्बन्धी जानकारी देने हेतु धर्मका प्रचार-प्रसार करना ।
धर्मप्रसार अपने मनसे नहीं अपितु किसी गुरुके शरणमें रहकर करें । इसके कुछ कारण निम्नलिखित हैं –
१. समष्टि साधना करनेसे समाज धर्माभिमुख होता है, इसलिए हम द्रुत गतिसे आध्यात्मिक प्रगति करते हैं; इसलिए इस साधनाको करते समय सूक्ष्म जगतकी अनिष्ट शक्तियोंका आक्रमण होता है ! यदि कोई अपने गुरुके मार्गदर्शनमें समष्टि साधना करता है तो गुरुके संकल्पके कारण उसपर कवच रहता है और उसका अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षण होता है ! मैंने अपने आध्यात्मिक शोधमें पाया कि अनेक हिन्दुत्ववादी अपने मनसे धर्मप्रसारकी सेवा करते हैं और कुछ काल उपरान्त उनके घरमें तीव्र स्तरके अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट आरम्भ हो जाता है, जिससे उनकी समष्टि साधनामें तो विघ्न आता ही है, उनका व्यष्टि जीवन भी भिन्न प्रकारके कष्टोंसे क्लेशप्रद हो जाता है !
२. जब हम समाजको मार्गदर्शन देते हैं और उसमें यदि हम किसीकी सुनी-सुनाई या अर्ध-ज्ञानी व्यक्तिके बातोंको, जो शास्त्र प्रमाणित नहीं होते हैं, उन्हें साझा करते हैं तो कर्मफल न्यायके सिद्धान्त अनुसार उससे पापकर्म निर्माण होता है, जिसे हमें भोगना ही पडता है । वहींं यदि हम आत्मज्ञानी सन्तोंके मार्गदर्शन अनुसार बताई साधना या धर्मकी बातें बताते हैं तो हमारी आध्यात्मिक प्रगति होती है ! जब तक हम आत्मज्ञानी नहीं होते तब तक धर्मकी सूक्ष्म पक्षकी सत्यताको पूर्ण रूपसे समझनेकी हमारे भीतर क्षमता निर्माण नहीं होती है; इसलिए सदैव आत्मज्ञानी गुरुके संरक्षणमें ही समष्टि साधना करना फलित होता है । (क्रमश:)



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