• सन्त एकनाथ महाराजने कहा है कि जो सुख एक साधारण व्यक्तिको स्त्री संगमें मिलता है, वैसा ही उच्च कोटिका आनन्द सन्तके सान्निध्यमें साधकको मिलता है; क्योंकि अद्वैत अवस्थामें स्थित सन्त काम-वासनासे ऊपर हो चुके होते हैं और उन्हें सभीमें ब्रह्म तत्त्वकी अनुभूति होती है !
• हमारे मनमें विचारोंकी मात्रा जितनी अल्प होती है, उतना ही अधिक हमारे संगतसे लोगोंको आनन्द मिलता है । बच्चोंमें वासनाके विचार सुप्तावस्थामें होते हैं, फिर भी वे हमें अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । उच्च कोटिके सन्त निर्विचार अवस्थामें या आनन्दावस्थामें रहते हैं; अतः उनसे आनन्द और शांतिके स्पंदनोंका प्रक्षेपण होता है; अतः साधनारत जीवको उनका संग अत्यंत प्रिय होता है और उनके साथ ही सदा रहें, ऐसा लगता है ।
• जैसे बुरे व्यक्तिके संग रहनेवालेको चोरी करना, शराब पीना जैसे दुष्कृत्य करना अच्छा लगने लगता है, वैसे ही सन्तोंके संगसे सुख भी दुःख समान लगता है, यह वैराग्यके कारण ही होता है । सन्त हमारे सुख भोगनेकी इच्छाको ही नष्ट कर देते हैं । उसीप्रकार सन्तके सान्निध्यमें दुःख भोगनेकी शक्ति मिलनेके कारण दुःखकी तीव्रताका भान ही नहीं होता; अतः सन्तके सान्निध्यमें साधक सुख-दुःखसे परे, आनन्दकी अनुभूति लेता है ।
• जिसप्रकार विशेष प्रकारकी ‘रेडियेशन’ या विकिरणसे कर्करोग अर्थात कैंसरके कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, उसीप्रकार सन्तद्वारा प्रक्षेपित आनन्दके स्पंदनसे उनके संग अधिक समयतक रहनेवाले साधकका मनोलय एवं बुद्धिलय हो जाता है और उसका अज्ञान नष्ट हो उसे आनन्दकी अनुभूति होती है ! सन्तके सान्निध्यमें रहनेसे क्या हो सकता है ?, यह एक उदाहरणके माध्यमसे देखेंगे । एक बार एक शिष्य गुरुके पास आया और उसने बताया कि मैं पिछले १२ वर्षोंसे नियमित ध्यान करनेका प्रयास कर रहा हूं; किन्तु मेरा मन एकाग्र ही नहीं होता । मैं अपनी इस समस्याका समाधान करने हेतु आपके पास आया हूं । गुरुजीने मुस्कुराते हुए कहा, “दो-चार दिन यहीं रहो, फिर तुम्हारी समस्याका समाधान बताऊंगा ।” सात दिनोंके पश्चात एक दिन गुरुने शिष्यको बुलाया, शिष्यने जैसे ही गुरुजीको देखा तो साक्षात दण्डवतकर, प्रणामकर कहा, “गुरुजी! मुझे मेरे प्रश्नका उत्तर मिल गया, जबसे आपके सान्निध्यमें आया हूं, मन पूर्णत: निर्विचार हो गया है, चाहकर भी विचार टिक नहीं पाते !” ऐसा होता है, सन्त सान्निध्यका परिणाम ! – तनुजा ठाकुर
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