हुतात्मा गोडसेजीने गांधीजीको क्यों मारा ?


nathuram godse

३० जनवरी १९४८ को श्री नाथूरामजी गोडसेने गांधीजीको गोली मारकर उनके प्राण हर लिए थे । तो आइए ! इस हुतात्माके विषयमें जानते हैं; क्योंकि उनके विषयमें हम सबने विद्यालयमें पढा है; परन्तु हमारी निधर्मी शिक्षण व्यवस्था जिसे हिन्दू धर्मविरोधी कहना अधिक उचित होगा, उसमें हमने, उन्हें गांधीजीके हत्यारेके रूपमें पढा है; किन्तु मैंने इस लेखमें उनके नामके आगे हुतात्मा अर्थात् शहीद शब्द लगाया है; क्योंकि उन्होंने गांधीजीकी हत्या नहीं की थी; अपितु उनका वध किया था, हत्या और वधमें भेद होता है । यह कैसे ? इसे आप इस लेखको पढनेके पश्चात् निश्चित ही जान जाएंगे । वस्तुत: हम हिन्दुओंके मनपर, राष्ट्रभक्त श्रीगोडसेजीको, गांधीजीकी हत्या करनेवाले देशद्रोहीके रूपमें अंकित किया गया है; जबकि उन्होंने राष्ट्रहित एवं हिन्दूहित हेतु गांधीजीका वध कर, स्वयंका सर्वस्व बलिदान कर, इस हिन्दू बहुल समाज एवं भारत देशपर उन्होंने जो उपकार किया है, उसके प्रति शब्दोंमें कृतज्ञता व्यक्त करना किसी भी राष्ट्रभक्त एवं हिन्दुत्ववादीके लिए कदापि सम्भव नहीं होगा । ३१ जनवरी १९४८ को उन्होंने इस ऐतिहासिक वधको परिणाम दिया था, इस विशेष दिवसपर आपको यह बतानेका एक तुच्छ सा प्रयास कर रही हूं कि ये महापुरुष गांधीजीके वध हेतु क्यों बाध्य हुए ?, जिससे इनके प्रति सभीके मनकी भ्रान्तियां दूर हो एवं सर्व सामान्य हिन्दूसे भी हिन्दुत्ववादियों समान सम्मान मिल सके, जिसके वे अधिकारी हैं । यहां एक तथ्य स्पष्ट कर दूं कि यद्यपि मैं एक हिन्दुत्वनिष्ठ हूं इसीलिए यह विषय नहीं ले रही हूं; अपितु सर्वसामान्य हिन्दूको वस्तुनिष्ठ होकर जो सत्य है, वह बतानेका प्रयास कर रही हूं । आज जो तथ्य मैं आपको बताने जा रही हूं, उसके साक्ष्य इतिहासमें उपलब्ध हैं; किन्तु हिन्दूद्रोही इतिहासकारों एवं मुसलमानोंके तुष्टिकरणसे आवेशित हमारे शासकीय तन्त्र एवं शिक्षण व्यवस्थाने इसे प्रामाणिक होकर, हिन्दुओंको सुस्पष्टतासे नहीं बताया; अपितु उसे अयोग्यरीतिसे बताकर एक हुतात्मा गोडसेजीके प्राणोंका बलिदानका घोर अनादर करनेका अक्षम्य पाप किया है । हो सकता है कि आपमेंसे जो कर्मनिष्ठ हिन्दू हैं, उन्हें ये सर्व तथ्य ज्ञात भी होंगे; किन्तु ९० कोटिवाले इस हिन्दू देशमें कितने कोटि हिन्दुओंको यह सत्य सुस्पष्टतासे ज्ञात होगा ?, इसपर आप तनिक विचार करें ! इसीलिए उनका संक्षिप्त जीवन परिचय एवं वे तथ्य जिस कारण वे गांधीजीके वध हेतु बाध्य हुए, उसे आजके लेखमें प्रस्तुत करनेका प्रयास कर रही हूं, कृपया इसे अधिकसे लोगोंमें साझा कर राष्ट्रभक्त एवं प्रखर कर्महिन्दू रहे हुतात्मा गोडसेजीके प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करें !

१. सर्वप्रथम उनका अल्प जीवन परिचय जान लेते हैं ।

श्री नाथूरामजी गोडसे महाराष्ट्रके एक हिन्दुत्ववादी विचारधाराके राष्ट्रवादी पत्रकार थे । उनका जन्म १९ मई १९१० को पुणेके एक चितपावन ब्राह्मण कुटुम्बमें हुआ था । उनके पिता श्री विनायकजी गोडसे डाक विभागके एक कर्मचारी थे । श्री गोडसेजीकी प्रारम्भिक शिक्षा बारामतीके एक स्थानीय विद्यालयमें हुई । इसके पश्चात् उन्हें पुणेमें अंग्रेजी भाषाके एक विद्यालयमें पढने हेतु भेजा गया । अपने शिक्षण कालमें वे गांधीजीका बहुत सम्मान करते थे एवं उनकी विचाधाराके प्रबल समर्थक थे ।

१९३० में उनके पिताका स्थानान्तरण रत्नागिरिमें हुआ था। वहां नाथूरामजी विद्यालयीन शिक्षा छोडकर हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों जिसमें प्रथम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं कुछ काल उपरान्त हिन्दू महासभाके कार्यकर्ता बन गए । वे मुख्य रूपसे अखिल भारतीय मुस्लिम लीगकी पृथकतावादी अर्थात् अलगाववादी राजनीतिका विरोध करते थे । श्री गोडसेजीने हिन्दू महासभाके लिए ‘अग्रणी’ एक मराठी समाचारपत्र निकालना प्रारम्भ किया, जिसका नाम कुछ वर्षों पश्चात् परिवर्तित कर ‘हिन्दू राष्ट्र’ रख दिया गया । वे इसके सम्पादक थे और सामयिक विषयोंपर विचारोत्तेजक सम्पादकीय लेख लिखा करते थे ।

धार्मिक पुस्तकों में उनकी गहरी रुचि होने के कारण रामायण, महाभारत, गीता, पुराणोंके अतिरिक्त स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, बाल गंगाधर तिलक तथा गांधीजीके साहित्योंका इन्होंने गहन अभ्यास किया था । इतना ही नहीं उन्होंने प्रारम्भमें तो उन्होंने मोहनदास करमचन्द गांधीजीके कार्यक्रमोंका समर्थन भी किया; परन्तु और बार-बार हिन्दुओंके विरुद्ध भेदभाव पूर्ण नीति अपनाए जाने तथा मुसलमानोंका तुष्टीकरण किए जानेके कारण वे गांधीजीके प्रचण्ड विरोधी हो गए और अन्तत: गांधीजीकी हिन्दू विरोधी नीतियोंके कारण राष्ट्रहित एवं हिन्दूहित हेतु उन्हें गांधीजीका ३० जनवरी १९४८ को वध हेतु विवश होना पडा ।

२. गांधीजीका वध एवं उन्हें मिलनेवाला दण्ड

अपनी योजनाके अनुसार वे ३० जनवरी १९४८ को सायंकाल एक ‘पिस्तौल’ लेकर गांधीजीकी प्रार्थना सभामें गए और जब गांधीजी सभामें आ रहे थे, तो उनके बहुत निकट जाकर, सर्वप्रथम उन्हें प्रणाम किया एवं तत्पश्चात् अपनी ‘पिस्तौल’से तीन गोलियां दागकर उनके प्राण हर लिए । इस घटनाको क्रियान्वित करते समय उन्होंने इस बातका विशेष ध्यान रखा कि गांधीजीके अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्तिको कोई शारीरिक चोट न पहुंचे । इसलिए गोली चलानेसे पूर्व उन्होंने गांधीजीसे निकट खडी हुई महिलाको अपने हाथसे धकेलकर दूर हटा दिया था । गोली चलानेके पश्चात् मची भगदडमें वे स्वयं भी भाग सकते थे; परन्तु उन्होंने भागनेकी कोई चेष्टा नहीं की और संकेत देकर एक पुलिस अधिकारीको अपने निकट बुलाकर अपनी ‘पिस्तौल’ उसे सौंपकर आत्म समर्पण कर दिया।

पंजाब उच्च न्यायालयमें श्रीगोडसे समेत १७ अभियुक्तोंपर गांधीजीके प्राण हरणका अभियोग (मुकदमा) चलाया गया । इस अभियोगकी सुनवाईके मध्य न्यायमूर्ति खोसलासे श्री गोडसेजीने अपना वक्तव्य स्वयं पढ कर जनताको सुनानेकी अनुमति मांगी थी, जिसे न्यायमूर्तिने स्वीकार कर लिया था । उन्होंने न्यायालयमें अपने अन्तिम वक्तव्यमें उन कारणोंको विस्तारसे बताया जिनके कारण उन्हें गांधीजीका वध करने हेतु विवश होना पडा था । उनका यह वक्तव्य इतना मर्मस्पर्शी था कि उसे सुनकर न्यायालयमें उपस्थित लगभग सभी व्यक्तियोंके नेत्र गीले हो गए । उच्चन्यायालयके एक न्यायाधीशने अपने निर्णयमें लिखा था कि यदि उस समय वहां उपस्थित लोगोंको ‘जूरी’ बना दिया जाता और उनसे इस घटनापर निर्णय लेने हेतु कहा जाता तो मुझे कोई सन्देह नहीं है कि प्रचण्ड बहुमतसे श्रीगोडसेजीके निर्दोष होनेका निर्णय दिया जाता । यथार्थमें श्री गोडसेजीने अपने बचावके कोई प्रयास नहीं किए और न्यायालयमें स्पष्ट स्वीकार कर लिया कि गांधीजीका वध उन्होंने किया था तथा इस कार्यमें उनका कोई साथी नहीं था । पंजाब उच्च न्यायालयलद्वारा उन्हें ८ नवम्बर १९४९ को फांसीद्वारा मृत्युदण्ड सुनाया गया । उन्होंने इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में कोई निवेदन अर्थात् अपील नहीं की और इस निर्णयको पूरे सम्मानके साथ स्वीकार कर लिया । इस निर्णयके केवल एक सप्ताह पश्चात् ही १५ नवम्बर १९४९ को अम्बाला कारागारमें उन्हें फांसीपर लटका दिया गया ।

स्वतन्त्रतासे ही हिन्दू विरोधी रही हमारी शासन व्यवस्थाने श्री गोडसेजीके न्यायालयमें दिए गए अन्तिम वक्तव्यपर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था; किन्तु हुतात्मा नाथूरामजीके छोटे भाई और गांधीजीके वधमें सह-अभियोगी श्री गोपाल गोडसे ने ६० वर्ष की लम्बी वैधानिक अर्थात् कानूनी लडाई लडनेके पश्चात् सर्वोच्च न्यालायलमें विजय प्राप्त की और श्री गोडसेजीके वक्तव्यको प्रकाशित किया गया ।

३. हुतात्मा गोडसेजीद्वारा बताए गए, गांधीजीके वधका कारण

हुतात्मा गोडसेजीने गांधीजीको मारनेका निर्णय भावावेशमें नहीं; अपितु सोच-विचार कर राष्ट्रहितमें लिया था । श्री गोडसेजीने गांधीजीके वधके पक्षमें अपने जो तर्क न्यायालयके समक्ष प्रस्तुत किए उसके कुछ मुख्य अंश आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं –

१. भारतकी स्वतन्त्रताके पश्चात् पाकिस्तानको एक समझौतेके अन्तर्गत ७५ कोटि (करोड) रूपये देने थे भारतने २० कोटि रूपये दे भी दिए थे; परन्तु २२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तानने कश्मीरपर बिना सोचे आक्रमण कर दिया । केन्द्रीय मन्त्रिमण्डलने आक्रमणसे क्षुब्ध होकर शेष राशि देनेको टालनेका निर्णय लिया; किन्तु गांधीजीने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवानेके लिए आमरण अनशन आरम्भ कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप ५५ कोटिकी राशि भारतने पाकिस्तानको दे दी ।

२. जब विभाजनके समय पाकिस्तानी मुसलमानोंद्वारा हिन्दुओंको भारी संख्यामें नरसंहार किया जाने लगा तो वहांसे आए विस्थापित हिन्दुओंने देहलीकी रिक्त मस्जिदोंमें अस्थाई शरण ली; किन्तु भारतके मुसलमानोंने मस्जिदमें रहनेवाले हिन्दुओंका विरोध किया जिसके आगे गांधीजी नतमस्तक हो गए और उनके आदेशके कारण उन उजडे हिन्दुओंको जिनमें वृद्ध, स्त्रियां व बालक अधिक थे, मस्जिदोंसे खदेड बाहर ठिठुरते शीतमें रात बितानेपर विवश किया गया ।

३. १४-१५ जून १९४७ को देहलीमें आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समितिकी बैठकमें भारत विभाजनका प्रस्ताव अस्वीकृत होनेवाला था, किन्तु गांधीजीने वहां पहुंचकर हठसे, उस प्रस्तावका समर्थन करवाया । यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देशका विभाजन उनके शवपर होगा । उनके इस हठके कारण मात्र देशका विभाजन ही नहीं हुआ; अपितु लाखों निर्दोष लोगोंका नरसंहार भी हुआ; परन्तु गांधीजीने इस सम्बन्धमें भी मुसलमानोंके प्रति ही सहानुभूति रखी ।

४. अमृतसरके जलियावाला बाग गोलीकाण्डसे समस्त देशवासियोंमें आक्रोशकी ज्वाला फूट रही थी, वे चाहते थे कि इस नरसंहारके नायक जनरल डायरपर अभियोग चलाया जाए; किन्तु गांधीजीने भारतवासियोंके इस आग्रहको समर्थन देनेसे स्पष्ट मना कर दिया एवं कुछ काल उपरान्त जब उधमसिंहने जर्नल डायरका वध इंग्लैण्डमें किया तो गांधीजीने भारत माताके उस वीर सपूतको एक ‘पागल’ अर्थात् उन्मादी व्यक्ति कहा और उन्होंने अंग्रेजोंसे आग्रह किया कि इस हत्या प्रकरणके पश्चात् उनके राजनीतिक सम्बन्धोंमें कोई समस्या नहीं आनी चाहिए !

५. भगतसिंह व उसके साथियोंके मृत्युदण्डके निर्णयसे सारा देश रो रहा था व गांधीजीकी ओर कातर भरी दृष्टिसे देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तोंको मृत्युके पाशसे बचाएं; किन्तु गांधीजीने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियोंके वीर कृत्योंको हिंसाकी उपाधि देते हुए उसे अनुचित ठहराया और जनसामान्य की इस मांगको अस्वीकार कर दिया ।

६. मोहम्मद अली जिन्ना आदि मुस्लिम नेताओंके विरोधको अनदेखा करते हुए १९२१ में गांधीजीने खिलाफत आन्दोलनको समर्थन देनेकी घोषणा की तो भी केरलके मोपला मुसलमानोंने वहांके हिन्दुओंअपर अत्यधिक अत्याचार किए जिसमें लगभग १५०० हिन्दू मारे गए व २००० से अधिकको मुसलमान बना दिया गया । गांधीजी इस हिंसाके प्रति भी मूकदर्शक बने रहे ।

७. १९२६ में आर्य समाजद्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलनमें लगे स्वामी श्रद्धानन्दकी अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवकने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप गांधीजीने अब्दुल रशीदको अपना भाई कह कर उसके इस कुकृत्यको उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलनको अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए अहितकारी घोषित किया ।

८. गांधीजीने अनेक अवसरोंपर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरु गोबिन्द सिंहको पथभ्रष्ट देशभक्त कहा । वही दूसरी ओर गांधीजी मोहम्मद अली जिन्नाको कायदे-आजम कहकर पुकारते थे ।

९. गांधीजीने जहां एक ओर कश्मीरके हिन्दू राजा हरिसिंहको कश्मीर मुस्लिम बहुल होनेसे शासन छोडने व काशी जाकर प्रायश्चित करनेका परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर भाग्यनगर (हैदराबादके) निजामके हिन्दू बहुल हैदराबादमें समर्थन किया। । उनकी मृत्युके पश्चात सरदार पटेलने सशक्त बलोंके सहयोगसे हैदराबादको भारतमें मिलानेका कार्य किया । गांधीजीके रहते ऐसा करना कदापि सम्भव नहीं होता ।

१०. कांग्रेस के ध्वज निर्धारणके लिए बनी समिति ख्रिस्ताब्द (१९३१) ने सर्व सम्मतिसे चरखा अंकित भगवा वस्त्रपर निर्णय लिया; किन्तु गांधीजीके हठके कारण उसे तिरंगा कर दिया गया । नोआखलीके १९४६ के धार्मिक उपद्रवके (दंगोंके) उपरान्त वह ध्वज गांधीजीकी कुटियापर भी लहरा रहा था; परन्तु जब एक मुसलमानको ध्वजके लहरानेसे आपत्ति हुई तो गांधीजीने उसे तत्काल उतरवा दिया । इसप्रकार लाखों करोडो देशवासियोंकी इस ध्वजके प्रति श्रद्धाको उन्होंने अपमानित किया; क्योंकि उस ध्वजके उतरनेसे एक मुसलमान प्रसन्न होता था ।

११. गांधीजीने देहली स्थित मन्दिरमें अपनी प्रार्थना सभाके मध्य नमाज पढी जिसका मन्दिरके पुजारीसे लेकर शेष सभी हिन्दुओंने विरोध किया; परन्तु गांधीजीने इस विरोधको कोई महत्त्व नहीं दिया वहीं यह महात्मा एक बार भी किसी मस्जिदमें जाकर गीताका पाठ नहीं कर सके ।

१२. कांग्रेसके त्रिपुरा अधिवेशनमें नेताजी सुभाषचन्द्र बोसको बहुमतसे कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया; किन्तु गांधीजी पट्टाभि सीतारमय्याका समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबूने निरन्तर विरोध व असहयोगके कारण पद त्याग दिया ।

१३. शिवबावनी ५२ छन्दोंका एक संग्रह है, जिसमें शिवाजी महाराजकी प्रशंसा की गई है । इसमें एक छन्दमें कहा गया है कि यदि शिवाजी न होते तो सारा देश मुसलमान हो जाता; किन्तु यह कटु सत्य गांधीजीको स्वीकार नहीं हुआ और उन्होंने शिवबावनीपर रोक लगवा दी ।

१४. लाहौर कांग्रेसमें वल्लभभाई पटेलका बहुमतसे चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गांधीजीके हठके कारण यह पद जवाहरलाल नेहरुको दिया गया ।

१६. जब मुसलमानोंने हिन्दीको राष्ट्रभाषा बनाए जानेका विरोध किया तो महात्मा गांधीजीने सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लिया और हिन्दीके स्थानपर हिन्दुस्तानी अर्थात् हिन्दी और उर्दूकी खिचडी भाषाको (हिन्दी + उर्दू) बढावा देने लगे । जबकि हिन्दू बहुल राष्ट्रकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी होनी चाहिए थी; किन्तु वे इसके भी विरोधी रहे । वस्तुतः अपने राजनीतिक जीवनके प्रारम्भमें गांधीजी हिन्दीको बहुत प्रोत्साहन देते थे; परन्तु जैसे ही उनको ज्ञात हुआ कि मुसलमान इसे स्वीकार नहीं करते तो वे तथाकथित ‘हिन्दुस्तानी’ भाषाके पुरोधा बन गए । भारतमें सभी जानते हैं कि ‘हिन्दुस्तानी’ नामकी कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है । यह भाषा केवल बोली जा सकती है, लिखी नहीं जा सकती है; किन्तु उनके अन्धभक्तोंने इसका भी समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोगकी जाने लगी और आज स्वतन्त्रताके इतने वर्ष पश्चात् हिन्दी भाषाकी इतनी ग्लानि हुई है कि आजका सर्व सामान्य हिन्दू शुद्ध हिन्दी न लिख पाता है, न बोल पाता है और न ही समझ पाता है अर्थात् गांधीजीद्वारा बोया हुआ बीज वृक्षका रूप ले चुका है । इसप्रकार मुस्लिमोंको सन्तुष्ट करनेके लिए स्वतन्त्रता पूर्वसे उन्होंने हिन्दी भाषाके सौन्दर्य एवं शुद्धताके साथ एक प्रकारसे ‘दुष्कर्म’ किया ।

१७. जवाहरलालकी अध्यक्षतामें मन्त्रीमण्डलने सोमनाथ मन्दिरका शासकीय व्ययपर पुनर्निर्माण करनेका प्रस्ताव पारित किया; किन्तु गांधीजी जो कि मन्त्रीमण्डलके सदस्य भी नहीं थे; उन्होंने सोमनाथ मन्दिरपर शासकीय व्ययके प्रस्तावको निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशनके माध्यमसे सरकारपर देहलीके मस्जिदोंका सरकारी व्ययसे पुनर्निर्माण कराने हेतु दबाव डाला ।

कुछ मुसलमानोंद्वारा वन्देमातरम् गानेका विरोध करनेपर गांधीजी झुक गए और इस पावन गीतको भारतका राष्ट्र गान नहीं बनने दिया । इसप्रकार गांधीजीकी मुसलमानोंके प्रति अन्धभक्तिके अनगनित उदाहरण हैं, वस्तुत: धर्मनिपेक्षताके नामपर मुसलमानोंकी तुष्टिकरणकी नीतिके जन्मदाता गांधीजी ही हैं जिसका कुपरिणाम आज स्वतन्त्रताके इतने वर्ष पश्चात् भी इस देशके हिन्दू भुगत रहे हैं ।

१८. सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यदि ३० जनवरी को गांधीजी वध रूक जाता तो ३ फरवरी १९४८ को एक विभाजन गांधीजीद्वारा और भी सुनिश्चित हो जाता । भारतद्वेषी जिन्नाकी मांग थी कि पश्चिमी पाकिस्ताननसे पूर्वी पाकिस्तानमें जानेमें बहुत समय लगता है; अतः कोई सामान्य पाकिस्तानी नागरिक यदि जाना हो तो समय अधिक लगता है और वायुयान अर्थात् हवाई जहाजसे जाने हेतु उतना धन भी वह नहीं दे सकता है, इसलिए उसकी मांग थी कि हमें भारतके मध्यसे एक मार्ग बनाकर दे दिया जाए जो लाहौरसे ढाका जाता हो एवं देहलीके निकट होकर जाता हो, जिसकी चौडाई कम से कम १० मील यानी १६ किलोमीटर हो और ४ से १० मीलके दोनों ओर मात्र मुस्लिम बस्तियां बने । किंचित सोचें, ऐसे मार्गके दोनों ओर मात्र मुस्लिम बस्तियां क्या जिन्नाकी स्वस्थ मा‍नसिकताकी परिचायक थी ? सच तो यह है कि गांधीजी होते तो देशका एक और विभाजन सुनिश्चित था । गांधीजी हिन्दू होते हुए भी हिन्दुओंके शुभचिन्तक नहीं थे वे मुसलमानोंके हितैषी एवं पाकिस्तानके राष्ट्रपिता थे जो प्रत्येक पगपर पाकिस्तानके पक्षमें खडे रहे, चाहे पाकिस्तानकी मांग उचित हो या अनुचित, गांधीजीके लिए उसका कोई महत्त्व नहीं था।

हुतात्मा गोडसेजीके अनुसार गांधीजी अपनी मांगको मनवानेके लिए अनशन-धरना-रूठना, किसीसे बात न करने जैसी युक्तियोंको अपनाकर अपना कार्य सिद्ध करनेमें महारथ प्राप्त कर चुके थे । इसके लिए वो नीति-अनीतिका या उस निर्णयके दूरगामी परिणामका लेशमात्र भी विचार नहीं करते थे । गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीकामें वहांके भारतीय समुदायके अधिकारों और हितोंकी रक्षाके लिए अच्छा कार्य किया; परन्तु जब वे भारत लौटे, तो उन्होंने एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्तर्गत अन्तिम रूपसे वे अकेले ही किसी बातको उचित या अनुचित सिद्ध करने लगे थे ।

यदि देशको उनका नेतृत्व चाहिए तो उनको सर्वदा सही मानना पडेगा और यदि ऐसा न माना जाए तो वे कांग्रेससे पृथक हो जाएंगे और अपनी पृथक गतिविधियां चलाएंगे, ऐसा उनका आशय रहता था । ऐसी प्रवृत्तिके सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता । या तो कांग्रेस उनकी इच्छाके सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी ‘सनक’, मनमानी, तत्त्वज्ञान तथा उनके उचित-अनुचित दृष्टिकोणोंके विषयमें स्वरमें-स्वर मिलाए अथवा उनके बिना कार्य करे । वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तुके लिए निर्णायक होते थे ।

इन सब कारणोंसे श्री नाथूराम गोडसेजीने यह अनुभव किया कि गांधीजीका आगे जीवित रहना देशके लिए बहुत हानिकारक होगा । इसलिए उन्होंने गांधीजीको मारनेका दृढ निश्चय कर लिया । उन्हें इसका भी भान था कि गांधीजीको भारत ही नहीं; अपितु सम्पूर्ण विश्वमें अत्यधिक सम्मानकी दृष्टिसे देखा जाता है, इसलिए उनको वध करनेवालेको घोर भर्त्सना और घृणाका पात्र बनना पडेगा तथापि उन्होंने यह कार्य किसी अन्यकी सहायताके बिना, स्वयं करने और इसका सारा कलंक अपने ऊपर लेना निश्चित किया और उसे क्रियान्वित भी किया, इससे इस महापुरुषके प्रति सिर सम्मानसे झुक जाता है ।

इसप्रकार अनेक घटनाओं एवं तथ्योंके आधारपर गांधीजीको हिन्दू विरोधी एवं देशविरोधी मानते हुए श्री गोडसेजीने महात्मा गांधीजी के वधको न्यायोचित बताया, जो यदि निष्पक्ष होकर कोई भी हिन्दूनिष्ठ राष्ट्रभक्त चिन्तन करे तो उसे भी यह निश्चित ही उचित लगेगा । श्रीगोडसेजीने न्यायालयमें स्वीकार किया कि गांधीजी बहुत बडे देशभक्त हैं, उन्होंने निस्वार्थ भावसे देश सेवा की । मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं; किन्तु किसी भी देशभक्तको देशके टुकडे करनेके, एक पन्थ विशेषके साथ पक्षपात करनेकी अनुमति नहीं दे सकता हूं; अतः गांधीजीके वधके अतिरिक्त मेरे पास कोई दूसरा पर्याय नहीं था ।

श्री गोडसेजीने फांसीसे पूर्व अपने अन्तिम आत्मोद्गारमें कुछ इसप्रकार वक्तव्य दिया था:

“यदि अपने देशके प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसकेद्वारा अर्जित पुण्यपदपर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूं ।”

आपको यह बता दें ! देशप्रेमसे भरी इच्छाके कारण ही उनकी अस्थियां आज भी विसर्जित नहीं की गई हैं; क्योंकि मृत्यु पूर्व उन्होंने लिखकर दिया था कि मेरे शरीरके कुछ हिस्सेको अर्थात् अस्थियोंको सम्भाल कर रखो और जब सिन्धु नदी स्वतन्त्र भारतमें पुनः समाहित हो जाए एवं पुनः अखण्ड भारतका निर्माण हो जाए, तब मेरी अस्थियां उसमें प्रवाहित करें ! इसमें दो-चार पीढियां भी लग जाएं तो भी कोई बात नहीं।”

हिन्दुओ ! हम सभी कर्मनिष्ठ हिन्दू यह संकल्प अवश्य ले सकते हैं कि शीघ्र अति शीघ्र हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाकर, हम अखण्ड भारतका निर्माण करेंगे एवं भारत माताके इस वीर सपूत एवं प्रखर हिन्दुत्ववादीकी अस्थियां सिन्धु नदीमें विसर्जित करेंगे और यही इस हुतात्माके प्रति खरी श्रद्धांजलि होगी।

आजके इस लेखको पढनेके पश्चात् आपको यह ज्ञात हो गया होगा कि गांधीजीका वध क्यों किया गया, किसप्रकार अनेक वर्ष, अनेक कोटि हिन्दुओंके साथ सतत् ही महात्मा कहे जानेवाले गांधीजीने बार-बार विश्वासघात किया एवं भारत देशमें मुसलमानोंका तुष्टिकरण करनेवाली, एक घातक नयी पीढीको जन्म देकर, भारतकी यह दुर्दशा कर दी है, जिस कारण आज हमारे देशमें आतंकवादी हमारे सेनाके सुरक्षा घेरेमें घुसकर भी आघात करनेकी धृष्टता करने लगे हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पठानकोट प्रकरण है और हमारे राज्यकर्ता तब भी गांधीजीके अहिंसावादी पदचिह्नोंपर चलकर तुष्टिकरणकी नीतिका त्याग नहीं कर पा रहे है और आतंकवादका पोषण करनेवाले विषवृक्ष रूपी पाकिस्तानको क्षमा करते रहते हैं और इन्हीं भयंकर चूकोंके कारण, आज सर्वत्र आतंकवाद एवं पृथकतावाद अपना जाल फैलाते जा रहा है और इस देशको हिन्दुस्तानके स्थानपर इस्लामीस्तान बनानेका खुला प्रदर्शन भी देशविरोधी तत्त्व करने लगे हैं । क्या यही दिन देखने हेतु हमारे हुतात्माओंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर भारतको स्वतन्त्र किया था ? क्या ऐसा कर हम वीरगतिको प्राप्त हुए उन राष्ट्रभक्तोंकी अवहेलना नहीं कर रहे हैं?, किंचित सोचें ! क्या यदि यही क्रम चलता रहा तो हमारी आनेवाली पीढी हमें कभी क्षमा करेगी ? अतः हिन्दुओ ! जागृत एवं कृतिशील हों एवं हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना कर, भारत माताके हितमें अपने प्राणोंका उत्सर्ग करनेवाले सभी हिन्दू निष्ठों एवं राष्ट्रभक्तोंको, अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करें ! यह कालकी मांग है । – तनुजा ठाकुर



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