मेरे पास एक चिकित्सक आए थे ! वे आधुनिकतामें रंगमें पूर्णत: रंगे हुए थे । आजके अधिकांश मैकाले शिक्षित बुद्धिजीवीको ‘सात्त्विकता’, यह शब्द ज्ञात नहीं है तो एक दिवस जब मैंने सात्त्विक राजसिक और तामसिक भोजन, वेशभूषा और भाषा, वृत्तिकी चर्चा कर रही थी तो उन्होंने कहा, दाल तो दाल होता है इसमें सात्त्विक, राजसिक तामसिक क्या होता है ? सबमें प्रोटीन कम अधिक प्रमाणमें होता है, वस्त्र भी वस्त्र होता है, आपको जो अच्छा लगे वह सही है ! मैंने कहा, “तब तो आप यदि किसी रोगीको खूनकी आवश्यकता हो तो आप किसीका भी खून बिना जांच किए चढा देते होंगे; क्योंकि खून तो खून होता है सबका खून लाल होता है !” तो वे मुझे खूनके भिन्न गुट और उनकी विशेषताएं बताने लगें ! मैंने कहा जैसे आधुनिक विज्ञानने आपको यह सिखाया है कि सभी खून एक सामान नहीं होता, जबकि स्थूलसे सबका रंग लाल होता है और आपने विज्ञानके इस शोधको सजहतासे मान्य कर लिया और वैदकिय शिक्षा ग्रहण करनेपर आपने इसपर विस्तृत अध्ययन कर, इसकी प्रतीति भी ले ली, इसलिए आप इसे मुझे अच्छेसे समझा सकते हैं और मैं आपके इन तथ्योंको मान्य कर रही हूं तो आपको हमारे अध्यात्मविदोंद्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म सिद्धान्त क्यों स्वीकार्य नहीं होते ? जैसे आजका विज्ञान शोध करता है वैसे ही अध्यात्मविद (सन्त, गुरु, सिद्ध, ऋषि, मुनि, तपस्वी, योगी) भी सूक्ष्म सम्बन्धी अध्यात्मशास्त्रके शोद्धकर्ता होते हैं, उनके सिद्धान्तोंको स्वीकार करनेमें आपकी बुद्धि इतना प्रतिकार क्यों करती है ?, क्या आपको इसका कारण ज्ञात है ? उन्होंने कहा, “क्यों ?” मैंने कहा, “क्योंकि योग्य साधना नहीं करनेके कारण और पाश्चात्य जीवन प्रणाली अनुसार जीवन व्यतीत करनेसे आपकी वृत्ति तामसिक हो गयी है, वैदिक संस्कृति अनुसार आचरण कर उसे सात्त्विक बनाए तो ही आपको अध्यात्मके सूक्ष्म सिद्धान्त सहज ही समझमें आएंगे ! “
इससे मुझे यह भी समझमें आया कि बुद्धिजीवी और तथाकथित बुद्धिजीवी या भष्ट बुद्धिजीवीमें क्या भेद होता है ? इसलिए अपनी वृत्तिको बाल्यकालसे ही सात्त्विक रखना चाहिए ! – तनुजा ठाकुर
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