जो विद्या पुस्तकमें रखी हो, मस्तिष्कमें संचित हो और जो धन दूसरेके हाथमें चला गया हो, आवश्यकता पडनेपर न वह विद्या ही काम आ सकती है और न वह धन ही । – चाणक्य
जो फलको जाने बिना ही कर्मकी ओर दौडता है, वह फल-प्राप्तिके अवसरपर केवल शोकका भागी होता है- जैसे कि पलाशको सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खानेपर खिन्न होता है । – महर्षि वाल्मीकि
उठो तो समुद्रमें भापकी भांति जो बादल बनती है, गिरो तो बादलसे बूंदकी भांति जो वर्षा बनती है |- स्वामी विवेकानन्द
श्रेष्ठ व्यक्तियोंका सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थोंसे भी अधिक दुर्लभ है । – तिरुवल्लुवर
लोग झूठ बोलने वाले मनुष्यसे उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांपसे । संसारमे सत्य सबसे महान् धर्म है । वही सबका मूल है । – महर्षि वाल्मीकि
जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसी वस्तुकी अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझनेके योग्य है । – वेदव्यास
दृढ निश्चय ही तुम्हें जीवित रखते हैं और मनकी दुर्बलता तुम्हें मृत्युकी ओर ले जाती है । – स्वामी विवेकानन्द
जो वस्तु अपनी रक्षाके लिए (उपयोगी) समझी जाती है, भाग्यवश उसीसे व्यक्तिका नाश भी होता है ।– कल्हण