संतोंके विस्मरण एवं सामान्य व्यक्ति और साधकोंके विस्मरण, (जिनका आध्यात्मिक स्तर साठ प्रतिशतसे अल्प होता है) में क्या भेद है


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पूर्व जन्म या इस जन्मके ध्यानमार्गी या ज्ञानमार्गीकी बुद्धि और स्मरण शक्ति सात्त्विक और तीक्ष्ण होती है किन्तु जैसे-जैसे साधनाका स्तर अस्सी प्रतिशतसे आगे जाने लगता है, साधनाकी प्रगल्भता बढती है साधकका बुद्धि एवं मनका लय होने लगता है फलस्वरूप साधकका विश्वमन और विश्व बुद्धिसे सहज एकरूपता बढने लगती है ऐसेमें साधकका (संतका कहना अधिक योग्य होगा) मन, भूत और भविष्यमें राममाण न होकर वर्तमानमें स्थित और शांत रहने लगता है ऐसी स्थितिमें संत, सर्वज्ञताकी ओर बढते हैं और ऐसेमें विस्मरणकी स्थिति होना अर्थात देहबुद्धिका अल्प हो जाना सहज सी बात है । ऐसी ही साधनाकी उत्तरोत्तर स्थितिमें परमहंस योगियोंके वस्त्र स्वतः ही छूट जाते हैं, कुछकी स्थिति तो ऐसी हो जाती है कि सामान्य व्यक्ति उन्हें विक्षिप्तकी भी संज्ञा दे देते हैं, ऐसे महायोगी एक शतक वर्षमें दो-चार ही होते  हैं !

साठ प्रतिशतके अल्प स्तरके साधकोंको विस्मरण क्यों होता है क्योंकि या तो वे योग्य प्रकारसे साधना नहीं करते हैं या अनिष्ट शक्ति साधकके मन एवं बुद्धिपर काला आवरण डाल देते हैं  और परिणास्वरूप उसका विस्मरण होता है। ऐसी स्थिति होनेपर साधकने प्रार्थना, नामजप और आध्यात्मिक उपाय – जैसे नमक पानी और गौमूत्र मिश्रित जल से स्नान, नमकपानी में पैर डुबोना इत्यादिपर अपना ध्यान अधिक केन्द्रित करना चाहिए ।

यहां एक और विशेष तथ्यपर प्रकाश डालना चाहुंगी जिनकी बुद्धि तीक्ष्ण और सात्विक होती है वे परोपकारकी भावनासे ओत-प्रोत है, उनका मन एवं बुद्धि समाजाभिमुख होनेके कारण  उनकी कृतियां समाज-कल्याणकी भावनासे ओतप्रोत होती हैं ,  वे सतत धर्मग्रंथोंका अभ्यास,  एवं उसके मनन -चिंतन, साधना करना एवं उसका लाभ समाजको कैसे हो इसमें लीन रहता है। यह बताना आवश्यक है क्योंकि आजके बुद्धिजीवी वर्ग जो मात्र येन- केन-प्रकारेण धनार्जन कर, स्वयं तथा अपने एवं अपने बच्चोंके सुख हेतु लीन रहते हैं उनकी बुद्धि तमोगुणी होती है -तनुजा ठाकुर



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