अनेक व्यक्तियों लगता है कि कोई साधक आत्मसाक्षात्कारी हो गया तो उसे पूर्णत्वकी प्राप्ति हो गई; परन्तु ऐसा नहीं है, सन्तोंमें भी गुरु, सद्गुरु एवं परात्पर गुरुका पद होता है । आत्मसाक्षात्कार ७०% आध्यात्मिक स्तरपर साध्य हो जाता है, ८०% स्तरपर सद्गुरु पद एवं ९०% स्तरपर परात्पर पद साध्य हो जाता है और उसके आगे भी पूर्णत्वकी प्राप्ति हेतु सन्तोंको साधनारत रहना पडता है । सभी धर्म संस्थापक (सभीकी स्थापना कलियुगमें हुई है) जिन्होंने सनातन धर्मके सूक्ष्म जगतके सिद्धान्तोंको नहीं माना है या अन्य धर्मसिद्धान्तोंका विरोध किया है वे पूर्ण सन्त नहीं थे वरन् यह कहना उचित होगा कि वे अध्यात्मशास्त्रकी भाषामें सन्त ही नहीं थे । इसे समझने हेतु पूर्ण सन्तके कुछ मुख्य लक्षण, गुणों एवं सीखके विषयमें जान लेते हैं –
१. पूर्ण सन्त सगुण और निर्गुण दोनोंके अस्तित्वको मान्यता देते हैं ।
२. उनमें भक्ति और ज्ञानका अनूठा संगम होता है ।
३. वे आवश्यकता पडनेपर क्षात्रवृत्तिका भी परिचय देकर समाजकी दुर्जनों एवं धर्मद्रोहियोंसे रक्षण करते हैं।
४. वे वैदिक सनातन धर्मके सिद्धान्तोंको ही पूर्ण रूपेण मानते हैं जैसे पितृकर्म, पुनर्जन्म, सगुण-निर्गुण, अनेक देवी-देवता, ऋण-व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था इत्यादि ।
५. उनके लेखनमें पूर्ण सत्यता होती है ।
६. उन्हें सूक्ष्म जगतकी पूर्ण जानकारी होती है ।
७. इष्ट और अनिष्ट शक्तियां उनसे अपना उद्धार चाहती हैं ।
८. उनकेद्वारा रचित ग्रन्थ सृष्टिके अन्ततक जीवोंका मार्गदर्शन करते हैं ।
९. उन्हें सदेह मुक्ति प्राप्त होती है ।
१०. अष्ट महासिद्धियां उनके आंगन खेलती हैं ।
११. दिव्यात्माएं उनके शिष्यत्व हेतु, इस धरापर जन्म लेती हैं एवं उनका कार्य करती हैं ।
१२. उनका कर्मक्षेत्र सदाके लिए तीर्थक्षेत्र बन जाता है ।
१३. वे धर्मके सभी अंगोंकी सीख समाजको देते हैं ।
संक्षेपमें जिन सन्तोंमें ये गुण नहीं थे उन्हें पूर्णत्वकी प्राप्ति नहीं हुई थी । पूर्णत्व प्राप्त सन्तोंके कुछ उदाहरण – आदि गुरु शंकराचार्य, स्वामी रमण महर्षि, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, तेलंग स्वामी, शिर्डी साईं बाबा, परम पूज्य भक्तराज महाराज, परात्पर गुरु परम पूज्य डॉ. आठवले इत्यादि – तनुजा ठाकुर
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