गीता सार-अकर्तापन युक्त कर्म


गीता सार :
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥
अर्थ : जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह भलीभाँति कर्मरत रहकर भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता ॥ – श्रीमद्भगवद गीता (४:२०)
भावार्थ : सृष्टिके कर्म सिद्धान्त अनुसार कर्म करनेपर उसका कर्मफल मिलता ही है; परंतु यहां भगवान श्रीकृष्ण यह सूत्र बता रहे हैं कि कर्मको करनेपर भी ऐसा क्या किया जाये कि उसके फलको भोगने नहीं भोगने पडते | यह विश्व कर्म प्रधान अतः बिना कर्मके कोई जीव रह ही नहीं सकता; परंतु यदि कर्ता कर्मके फलकी इच्छाको त्याग दे और कर्मके कर्तापनको ईश्वरके श्रीचरणोंमें सतत अर्पण करता रहे तब कर्मरत जीवको कर्मफलके सिद्धान्त नहीं भोगने होते हैं और ऐसे जीव ईश्वरपर तो आश्रित होते हैं संसारसे इनका आश्रय अर्थात मोह-भंग हो चुका होता अर्थात यह जीव मूलतः सन्यासी प्रवृत्तिका हो जाता है, बाह्यत: वह अपने प्रारब्ध अनुरूप यदि एक सदगृहस्थ हो तो भी उसे संसारके प्रति उसकी आसक्ति नहीं होती ऐसा जीव एकांतमें आनंदकी अनुभूति लेता है | सांसरिक सम्बन्धोंके मायाजालकी उसे आवश्यकता नहीं होती और वह संसारमें रहे या वनमें उसके आसपासकी वस्तुस्थिति उसके आंतरिक ईश्वरीय अंतरंगताको भंग नहीं करता | साधना करना उसके जीवनका मुख्य ध्येय होनेके कारण वह उसीमें संतुष्ट और संलग्न रहता है | वह यद्यपि कर्मरत रहता अर्थात प्रारब्ध अनुसार वह अपना कर्म करता है; परंतु वह कुछ भी नहीं करता अर्थात वह अकर्ता हो जाता है उसके ऊपर कर्मफलके सिद्धान्त लागू नहीं होते | –तनुजा ठाकुर


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