गीता सार :वर्णाश्रम व्यवस्था


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥ श्रीमदभगवद्गीता (४:१३)

अर्थ  : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णोंका वर्गीकरण, गुण और कर्मोंके आधारपर  मेरेद्वारा रचा गया है । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान॥

भावार्थ : हमारी वैदिक संस्कृति वर्णाश्रम व्यवस्था आधारित थी | जाति व्यवस्था जहां जन्म आधारित रही है वहीं वर्णव्यवस्था गुण-कर्म आधारित था और ईश्वरने यह प्रवाधान स्वयं किया है जिसे भगवान श्री कृष्ण अपने श्रीमुखसे स्वयं बता रहे हैं | वर्णव्यवस्था, ईश्वरप्राप्ति अर्थात आध्यात्मिक प्रगतिका एवं समाज व्यवस्था सुचारु रूपसे चलानेका एक उत्तम एवं सहज माध्यम था | जिस भी व्यक्तिके पास ईश्वरने जो भी गुण दिया है उसे ईश्वर चरणोमें अर्पित कर समष्टि हेतु सेवारत रहना, इसे ही वर्णानुसार साधना या व्यवस्था कहते हैं | किसका वर्ण क्या है यह आत्मज्ञानी संत बताते थे और वर्ण व्यवस्थाकी विशेषता यह थी कि जब कोई व्यक्ति जिस वर्णका हो, उसकी उस वर्णकी सेवामें पूर्णता आ जाती थी तो उसके प्रवास उत्तरोत्तर वर्णके लिए स्वतः ही हो जाते थे या द्रष्टा संत उनका मार्गदशन करते थे | इस व्यवस्था अंतर्गत एक ही जन्ममें शूद्र वर्णका व्यक्ति अपने योग्य कर्मोंद्वारा ब्राह्मण वर्ण तक पहुंच सकता था और इसके उदाहरण है, ऐसे अनेक ब्रह्मज्ञानी संत जिनका जन्म तो ब्राह्मण वर्ण या जातिमें नहीं हुआ था; परंतु उन्होंने साधना रूपी योग्य कृतिसे ब्राह्मण वर्णको पाया और समाजने उन्हें ब्राह्मणके रूपमें स्वीकार भी किया | हमारे उपनिषदके अनेक रचियता मूलतः क्षत्रिय वर्णके थे और साधना कर ब्राह्मण वर्णको प्राप्त हुए और हमारी संस्कृतिमें उन दिव्य विभूतियोंके प्रति कभी भी भेदभाव नहीं किया गया  | वर्ण संस्कृतिमें सभी वर्णोंका सम्मान किया जाता था | उसके अवशेषके रूपमें आज भी आप अनुभव कर सकते हैं कि विवाह, उपनयन जैसे संस्कारोंमें दूसरी जातिके व्यक्तिद्वारा कुछ न कुछ संस्कार एवं कर्मकांडकी रीतियां प्रचलित हैं |

जातिकी उत्तपत्ति वर्णसे ही हुई हैं, जब तक समाज और राज्यकर्ता धर्माचरण कर रहे थे तब तक सब कुछ व्यवस्थित चलता रहा | परंतु  जैसे ही समाजने धर्मका आधार छोड दिया, राजा अधर्मी होते गए और पंडित जो गुरु स्थानपर थे वे धर्मशिक्षण देनेके स्थानपर पाखंड करने लगे, जाति व्यवस्थाने विभत्स स्वरूप ले लिया | हमारी संस्कृति तो स्पष्ट रूपसे कहती है कि जन्मसे सभी शूद्र होते हैं हमारा कर्म हमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाता है |

वर्ण व्यवस्थाकी दूसरी विशेषता यह थी कि दंडके समय जिसका वर्ण जितना ऊंचा रहता था उसकेद्वारा किए गए पापकर्मका उसे उतना ही बडा दंड दिया जाता था | आज भारतीय संस्कृतिकी यह दुर्गतिका मूल कारण वर्णाश्रम व्यवस्थाका टूट जाना है |  धर्मके इस महत्वपूर्ण पहलूसे अनभिज्ञ आजके मूढ राज्यकर्ता चहुं ओर, जाति आधारित आरक्षण करवा रहे हैं अब आप स्वयं सोचें कि एक अयोग्य व्यक्ति यदि बौद्धिक कौशल्यकी आवश्यकतावाले  क्षेत्रका अधिकारी, मात्र आरक्षणके कारण प्राप्त करता है तो इस समाजकी क्या स्थिति होगी ! अर्थात एक आदिवासी विद्यार्थी ३५ % अंक लानेपर भी यदि मात्र आदिवासी होनेके कारण आधुनिक वैद्य (डॉक्टर) बनता है तो रोगियोंका वह कितना कल्याण कर पाएगा |

आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं कि यद्यपि उस सम्पूर्ण सृष्टिकी सृजनका मूल कारण मैं ही हूं तथापि मैं अकर्ता हूं | ज्ञानीने भी सर्व कृति अकर्तापनके भावसे करना चाहिए तभी उसपर कर्मफलका सिद्धान्त लागू नहीं होता |-

-तनुजा ठाकुर

 



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