व्यष्टि एवं समष्टि साधनामें भाव आवश्यक है !


व्यष्टि साधनामें तन, मन एवं धनका त्याग होता है | समष्टि साधनामें तन, मन, धनके त्यागके साथ ही तडप, जिज्ञासा, सीखनेकी वृत्ति और समष्टिका नेतृत्व कर पाना इत्यादि गुण आवश्यक होता है | दोनों ही प्रकारकी साधनामें भाव आवश्यक होता है | भावका इतना महत्व है | – परम पूज्य डॉ. जयंत आठवले (आषाढ कृष्ण पक्ष ३, कलियुग वर्ष ५११५ (२५.७.२०१३))

भावार्थ : साधनाके दो प्रकार हैं – व्यष्टि और समष्टि साधना | व्यष्टि साधना अर्थात अपने या अपने कुटुंबके किसी कामनापूर्ति हेतु या स्वयंकी आध्यात्मिक प्रगति हेतु साधना करना | कलियुगमें व्यष्टि साधनाका महत्व ३० प्रतिशत है और समष्टि साधनाका महत्व ७० प्रतिशत है | यदि व्यष्टि साधना निष्काम हो तो दोनों ही प्रकारकी साधना करनेसे हमारी आध्यात्मिक प्रगति होती है मात्र जब हम बिना व्यष्टि साधनाके ठोस आधारके समष्टि साधना करनेका प्रयास करते हैं तो सूक्ष्म जगतकी आसुरी शक्ति तीव्र गतिसे हमपर आक्रमण करती हैं और ऐसेमें यदि हमें सूक्ष्म जगतकी सूक्ष्म इंद्रियोंके सहायतासे जानकारी न हो और हमारे ऊपर अपने इष्टकी या गुरुकी कृपा न हो तो या तो कोई व्यवधान आ जाता है और हमारी थोडे प्रमाणमें जो व्यष्टि साधना छूट हो रही होती है वह भी छूट जाती है और वैयक्तिक और आध्यात्मिक जीवनमें आध्यात्मिक अडचनोंकी भरमार लग जाती है, साथ ही समष्टि साधनामें भी अवरोध निर्माण होने लगता है ! व्यष्टि और समष्टि साधनामें ईश्वरकी, सद्गुरुकी या अपने आराध्यकी कृपा तभी संपादित होती है जब साधकमें भाव हो | भावका सरल सा अर्थ है, ईश्वरके अस्तित्वका भान रखते हुए उन्हें अपने सर्व कर्मोंका कर्तापन अर्पण करते हुआ उन्हें जो अपेक्षित है उस प्रकारके कर्म करना, ध्यान रहे यहां स्वयमकों क्या अच्छा लगता है इसका विशेष महत्व नहीं होता, ईश्वर या गुरुको क्या प्रिय लगेगा इस दृष्टिकोणसे सर्व कर्म होने चाहिए | व्यष्टि और समष्टि साधना परिणाकरक हो अर्थात उससे साधककी आध्यात्मिक प्रगति हो, उसके लिए साधकने प्रथम भाव जागृतिके हेतु लगनसे प्रयास करना चाहिए, तत्पश्चात भाव वृद्धि हेतु प्रयास करने चाहिए और अंत में भावास्थामें सातत्य रहे ऐसा प्रयास करना चाहिए | भाव जागृति एवं भावके संवर्धन हेतु ईश्वरसे एवं सेवाके प्रत्येक माध्यमसे प्रार्थना और कृतज्ञता व्यक्त करना, सूक्ष्मसे अपने आराध्यका सतत विचार करना, उनकी कृपाका विचार कर कृतग्यताके भावसे उसीमें मग्न रहते हुए सर्व कर्म करना, अपने स्वभावदोष और अहंसे संबन्धित सभी लक्षणोंपर ध्यान देते हुए उसे दूर करने हेतु निरंतरतासे प्रयास करना आवश्यक है |-तनुजा ठाकुर



2 responses to “व्यष्टि एवं समष्टि साधनामें भाव आवश्यक है !”

  1. Qutubfatemi says:

    अद्भुत …..

  2. ashwani Bhardwaj says:

    ,,,,Atiutm. Bhut sunder h

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