भाव एवं भावनावश सेवामें भेद


भावनावश सेवा अर्थात किसी भी परिस्थिति, समुदाय या व्यक्तिको देखकर मन व्यथित हो जाये और उस स्थितिको सुधारनेके लिए जब सेवा करते हैं तो उसे भावनावश सेवा कहते हैं । इस प्रकारकी सेवा करनेवालेको सतत यह भान रहता है कि उसने कुछ अच्छा किया है और वह उस कृतिका कर्ता है । अधिकतर समाजसेवक भावनामें बहकर समाज सुधारका बीडा उठाते हैं और कुछ काल बीतनेपर उन्हें उसमें विशेष उपलब्धि प्राप्त न हो तो वे दु:खी हो जाते हैं और ऐसेमें कुछ या तो समाज-सेवा छोड देते हैं या समाजके प्रति उनका निराशावादी दृष्टिकोण निर्माण हो जाता है । ऐसे ही कुछ समाजसेवकोंने आत्महत्या भी की है, इतिहास उसका साक्षी है । स्वामी विवेकानन्दका इस सन्दर्भमें एक दृष्टिकोण अत्यंत प्रेरणास्पद है, उन्होंने ऐसे सेवकोंपर कटाक्ष करते हुए कहा है, “यदि किसी दरिद्रके लिए कुछ करनेके पश्चात तुम्हारे मन में यह विचार आता है कि मैंने उसका भला किया तो ऐसे कर्म न करें; क्योंकि जो परमेश्वर प्रशांत महासागर के ५  किलोमीटर नीचेसे जीवका संगोपन करनेमें समर्थ हैं, वह उस दरिद्रका भी संगोपन निश्चित ही कर सकते हैं ”।

 जिस जीवमें भाव होता है, वह सोचता है कि प्रत्येक जीव मात्रमें ईश्वरीय तत्त्व विद्यमान है; अतः उसकी सेवा करना मेरा सौभाग्य है और यह ईश्वरकी विशेष कृपा है कि उन्होंने मुझे इस कार्यके लिए चुना है, इस हेतु मैं उनका कृतज्ञ हूं | इस प्रकारके भाव रख जो जीव सेवा करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गतिसे होती हैऔर वह ईश्वरीय कृपाका पात्र बनता है | ऐसे जीवका मूल धर्म सेवा होता है, उसे पद, प्रतिष्ठा, धन संपत्ति किसीमें भी रुचि नहीं होती | ऐसे साधक जीवको संत कहते हैं ।



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