साधना की तो विवाह करनेसे वंचित रह जाओगे – एक गलतधारणा


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साधना संबंधी कुछ गलत धारणाएं समाजमें प्रचलित हैंं अध्यात्म और धर्म संबन्धित हमारी नींव जितनी सशक्त होगी, आध्यात्मिक प्रगति करना उतना ही सुगम होता है और बुद्धि बाधा न बन, आध्यात्मिक प्रगतिके लिए पूरक हो जाती है, साथ ही कोई हमें इस पथसे विमुख या दिशाहीन भी नहीं कर सकता।
आज हम एक महत्वपूर्ण गलतधारणाके विषयमें जानेंगे। कुछ अज्ञानी लोग समाजमें साधकोंको विशेषकर युवा वर्गको साधनाके मार्गसे च्युत करने हेतु कहते हैं कि यदि साधना की तो विवाह करनेसे वंचित रह जाओगे परंतु इसमें कोई सच्चाई नहीं है।

इस विषयको समझने हेतु सर्वप्रथम संक्षेपमें स्तरानुसार साधना जान लें 
संपूर्ण सृष्टिका निर्माण ईश्वरने किया है अतः सजीव-निर्जीव सभीमें कुछ न कुछ मात्रामें सात्त्विकता रहती है और ईश्वरसे पूर्णत: एकरूप हुए संतों की सात्त्विकता सौ प्रतिशत होती है। मनुष्य योनिमें जन्म लेनेके लिए कमसे कम बीस प्रतिशत सात्त्विकता होनी चाहिए। बीस प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरका व्यक्ति नास्तिक समान होता है उसे अध्यात्म, देवी देवता, धर्मं इत्यादिमें कोई रूचि नहीं होती। तीस प्रतिशत स्तर होनेपर व्यक्ति कर्मकांड अंतर्गत पूजा-पाठ करना, तीर्थक्षेत्र जाना, स्त्रोत्र पठन करना जैसी साधना करने लगता है। पैंतीस प्रतिशत स्तर साध्य होनेपर खरे अर्थमें उसकी अध्यात्मके प्रति थोड़ी रूचि जागृत होती है और वह साधना करनेका प्रयास आरम्भ करता है। चालीस प्रतिशत स्तर होनेपर वह मनसे नामजप करनेका प्रयास करता है और पैंतालीस प्रतिशत स्तर आनेपर उसकी अध्यात्ममें रूचि बढने लगती है और अनेक प्रकारकी साधनासे एक प्रकारकी साधनामें उसका प्रवास आरम्भ हो जाता है ।पचास प्रतिशत स्तर साध्य होनेपर वह व्यावहारिक जीवनकी अपेक्षा आध्यात्मिक जीवनको अधिक महत्व देने लगता है और अखंड नामजप करना, सत्संगमें जाना और सेवा करना जैसी आध्यात्मिक कृति निरंतरतासे करने लगता है। पचपन प्रतिशत स्तर साध्य करनेपर खरे गुरुका उसके जीवनमें प्रवेश हो जाता है और वह तन, मन धन तीनोंका पचपन प्रतिशत भाग किसी गुरु को, या गुरुके कार्यके लिए या धर्मं कार्यके लिए अर्पण करने लगता है। साठ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरपर खरे अर्थमें सेवा आरम्भ होती है। इससे नीचेके स्तरपर मन एवं बुद्धिद्वारा विषय समझकर सेवा करनेका प्रयास करते हैं। सत्तर प्रतिशत स्तरपर साधक संतके गुरु पदपर आसीन होता है और अस्सी प्रतिशत आनेपर सदगुरु पदपर आसीन होता है और नब्बे प्रतिशत स्तरपर परात्पर पद साध्य हो जाता है।  इसके पश्चात वह जीवात्मा ईश्वरसे पूर्ण एकरूपता हेतु मार्गक्रमण करने लगती है।

विवाहके विषयमें कुछ मूलभूत अध्यात्मशास्त्रीय सिद्धान्त जान लें 
१. विवाह करनेसे आध्यात्मिक अवनति नहीं होती, अनेक गृहस्थसंत ने संतपदको प्राप्त कर यह सिद्ध कर दिया है, संत कबीरदास, रायदास, तुकाराम महाराज, एकनाथ महाराज इत्यादि जैसे अनेक गृहस्थ साधना कर उच्च कोटिके संत हुए !
२. .यदि किसीके प्रारब्धमें विवाह है तो वह उसे करना ही पड़ता है क्योंकि जन्म, मृत्यु और विवाहका संबंध पृथ्वी तत्त्वसे होनेके कारण इसमें परिवर्तन अत्यधिक कठिन है।
३. विवाहके पश्चात यदि साधक प्रवृत्तिके पति या पत्नी मिले तो साधना करना सरल हो जाता है और साधनामें पति-पत्नी एक दूसरेके पूरक बन, आत्मनियंत्रणकी प्रक्रियाको कृतिमें लानेका प्रयास करने लगते हैं।
४. वैदिक सनातन धर्ममें विवाहको यज्ञ-कर्म माना गया है क्योंकि इससे संतान उत्पत्ति होती है जिससे सृष्टिकी सृजन प्रक्रिया चलती है अतः शास्त्रोंमें गृहस्थ जीवनको उच्च स्थान दिया गया है।
५. विवाहके पश्चात यदि पति-पत्नीके संभोगकी प्रक्रिया शास्त्र अनुरूप योग्य तिथि और वारको हो एवं मात्र संतान उत्त्पत्ति हेतु हो तो ऐसे गृहस्थको शास्त्रोंमें सन्यासी समान माना गया है; परंतु यदि पति या पत्नी साधक प्रवृत्तिके न हो तो परेच्छा मान उनकी इच्छा तृप्ति करनेसे भी कोई दोष नहीं लगता।
६. चालीस प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरसे कमके साधकको विवाह अवश्य ही करना चाहिए चाहे उनके जीवनमें योग्य गुरु हों या न हों क्योंकि चालीस प्रतिशतसे कम स्तरपर विषय वासनाओंको नियंत्रित करना कठिन होता है और ऐसेमें यदि व्यक्ति एकाकी जीवन जीनेका प्रयास करे तो मन वासनाओंकी तृप्तिके विचारमें भटकता रहता हैl अतः संसारमें रहकर साधना करना अधिक योग्य है, इससे साधना करना अधिक सरल हो जाता है।
पचास प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरके साधक यदि योग्य सद्गुरुके शरणमें साधना कर रहे हों और ईश्वरप्राप्तिकी तीव्र तड़प हो तो गुरुसे इस संदर्भमें पूछना चाहिए क्योंकि ऐसे साधक यदि विवाह न करें तो आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र कर अपनी वासनाओंपर नियंत्रण पा सकते है। पचास प्रतिशत स्तरके व्यक्तिके जीवनमें यदि गुरु न हों तो उस साधकको ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिए कि यदि विवाह करना मेरी आध्यात्मिक उन्नति हेतु पोषक है तो मेरा विवाह होने दें अन्यथा अपने श्रीचरणोंमें रहने दें। साठ प्रतिशतसे अधिक आध्यात्मिक स्तरके साधकके जीवनमें यदि सद्गुरु हों और ईश्वरप्राप्तिकी तीव्र तडप हो तो वे अपनी बुद्धिसे निर्धारित कर विवाह न भी करें तो उनके आध्यात्मिक स्तरानुसार यह स्थिति पोषक सिद्ध होती है। साठ प्रतिशतसे अधिक आध्यात्मिक स्तरके साधकका यदि तीव्र प्रारब्ध हो अर्थात् उसे अत्यधिक दु:ख सहना लिखा हो तो भी उनका विवाह अवश्यंभावी होता है और ऐसे साधकका विवाह उनकी इच्छा न हो तो भी हो जाता है।
७. यदि पति-पत्नीके बीचके आध्यात्मिक स्तरमें ५ प्रतिशतसे अधिकका अंतर हो तो भी वैवाहिक जीवनमें सामंजस्य नहीं बन पाता क्योंकि दोनोंके वैचारिक स्तरमें अंतर हो जाता है। अतः यदि विवाहके लिए योग्य वर या वधू देखते समय साधकको, यथायोग्य वर या वधू ढूंंढनेका प्रयास करना चाहिए । इस हेतु अपने कुलदेवताकी प्रार्थना करें। वे हमारे प्रारब्धकी तीव्रताको कम करनेकी क्षमता रखते हैं ।
८. ऐसा देखनेमें आया है कि यदि वर-वधु दोनों पक्षों की ओर से तीव्र पितृ-दोष हो और दोनों ही ज्येष्ठ संतान हो, तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टप्रद होता है। ऐसे साधक दंपत्तिको आरंभसे ही पितृ-दोष निवारण हेतु सतर्क हो, प्रयत्न करने चाहिए ।
९. साधनारत होनेपर यदि हमारा आध्यात्मिक स्तर साठ प्रतिशतसे अधिक हो जाये और किसी साधकको अपने पतिसे या पत्नीसे तीव्र विरोध हो ऐसेमें गृहत्याग कर साधना करनेसे पाप नहीं लगता ।
१०. एक बातका ध्यान रखें, चाहे कोई साधक विवाहित हो या सन्यासी मात्र सम्पूर्ण शरणागति और पूर्ण अनासक्ति उसे मोक्षकी प्राप्ति करवा सकती है अतः साधनाके इस मूलभूत सिद्धान्तको जान, अखंड साधनारत रहना चाहिए । दो नौकाओंमें पैर रख हम इस भवसागरको नहीं पार कर सकते अतः चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी आसक्तियोंपर नियंत्रण और ईश्वर इच्छा मान सर्व कृति करना ही साधनाका मूलभूत सिद्धान्त है ।
११. संसारमें रहकर साधनारत होना न धर्म विरुद्ध है न शास्त्र विरुद्ध, मात्र ऐसे जीवको अपने ध्येयसे भटकनेकी संभावना अधिक होती है और जो सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक प्रगति कर इस भवसगारको पार करता है उन्हें संतोंने नायक (हीरो) की उपाधि दी है -तनुजा ठाकुर



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