सत्संग के लाभ


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सत्संग शब्दकी व्युत्पत्ति सत जोड संगसे हुई है यहां सतका अर्थ है ईश्वर या ब्रह्म तत्त्व अर्थात् जो शाश्वत है, जो सनातन है, नित्य है, जो कभी नहीं बदलता उसे सत कहते है और संगका अर्थ है संगत अर्थात् ईश्वर या ब्रह्मतत्त्वकी अनुभूति हेतु अर्थााात अध्यात्मकी दृष्टिसे पोषक वातावरण । कीर्तन या प्रवचनके लिए जाना मंदिर जाना, तीर्थक्षेत्र जाना, संत लिखित आध्यात्मिक ग्रंथोंका वाचन करना, अन्य साधकोंका सानिध्य, संत या गुरुके दर्शन हेतु जाना इत्यादिसे क्रमशः अधिकाधिक उच्च स्तरका सत्संग प्राप्त होता है ।
सत्संग दो प्रकारका होता है एक होता है बाह्य सत्संग और दूसरा होता है आंतरिक सत्संग । जब हमारा योग या जुडाव ईश्वरके साथ अखंड हो जाता है और उसका क्रम कभी भी नहीं टूटता है उसे खरे अर्थमें सत्संग कहते हैं और इस प्रकारके सत्संगको आंतरिक सत्संग कहते हैं । इस प्रकारके सत्संगमें संत या उच्च कोटिके उन्नत रहते हैं (६०% प्रतिशतसे अधिक) वे सदा ईश्वरके संग जुड़े रहते हैं वे चाहे पूजा घरमें हो, मछली बाज़ारमें हो, श्मशान भूमिमें हो या ऐश्वर्यसे युक्त एक महलमें, उनका ईश्वरके साथ सहवास अखंड बना रहता है, बाह्य वातावरण उनके ईश्वरके साथ की अंतरंगता एवं अखंडताको प्रभावित नहीं करता, परन्तु यह अध्यात्मके अत्यंत उच्च स्तरपर साध्य होता है ।
साधारण मनुष्यके लिए या साधना आरम्भ करने वाले साधकके लिए यह संभव नहीं होता तो वह क्या करे ? जब तक हमें आतंरिक सत्संगकी अखंड अनुभूति नहीं होती तब तक हमें बाह्य सत्संगका सहारा अवश्य ही लेना चाहिए। बाह्य सत्संगके बहुत प्रकार हैं सर्वप्रथम हम सर्वश्रेष्ठ बाह्य सत्संग क्या है यह जान लेते हैं । सर्वश्रेष्ठ बाह्य सत्संग है संतोंका संग । संत कौन होते हैं ? ईश्वरके सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान तत्त्वका प्रकट स्वरुप अर्थात् संत । अतः संत सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान होते हैं । जिन्होंने प्रचंड साधना कर ईश्वरसे एकरूपता साध्य कर ली है उन्हें संत कहते हैं; परंतु कलियुगमें ऐसे संतोंकी संख्या अत्यल्प है ।
संतोंको हम इन स्थूल आंखोंसे नहीं पहचान सकते हैं । क्या कारण है ? क्यों हम उन्हें स्थूलसे पहचाननेमें असमर्थ हैं ? संतकी आध्यात्मिक परिभाषा क्या है, यह जान लेते हैं ,जिस जीवात्माका मन बुद्धि एवं अहम् पूर्णत: नष्ट हो गया हो और वे विश्वमन एवं विश्वबुद्धिसे एकरूप हो गए हों उन्हें संत कहते हैं अब आप ही बताएं किसी व्यक्तिका मनोलय हो गया है उसकी बुद्धि एवं अहमका लय हो गया है ऐसे व्यक्तिको कोई साधारण पञ्च ज्ञानेन्द्रियोंसे या अल्प बुद्धिसे कैसे समझ सकता है ? अतः संतोंको समझना या उनकी अनुभूति हेतु ठोस साधनाका आधार होना चाहिए, या सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियां जागृत होनी चाहिए या ईश्वरके प्रति भाव होना चाहिए अन्यथा आप संतके साथ रहकर भी आप संतको पहचान नहीं पाएंगे ।
अनेक संत सामान्य लोगोंकी पहचानमें नहीं आ पाते हैं और वे गुप्त रहकर साधना करते हैं । अप्रैल २०१० में मैं बिहारके देहरी ऑन सोनमें प्रवचन देने हेतु गयी थी । वहां पांच दिनका प्रवचन था । चौथे दिन जब मैं प्रवचनस्थलपर पहुंची तो मंचसे एक अत्यंत ही भावपूर्ण एवं दिव्य ध्वनिमें गाये जा रहे भजनने मेरा ध्यान आकृष्ट किया । वह वाणी थी एक ऐसे साधकका जो अभियंता पदसे सेवा निवृत्त हुए थे और उस मंदिरमें आकर भजन इत्यादि गाया करते थे और सन्यासीका वेश धारणकर गृहस्थ जीवनमें रहकर ही साधना किया करते थे ।
उनके भजन सुननेके पश्चाचात्त् जब सूक्ष्म निरीक्षण किया तो पता चला कि वे लगभग संत पदपर( उनका आध्यात्मिक स्तर 68% था) आसीन हैं और वहांके लोग जो उनके पडोसी हैं उनमें से किसीको ज्ञात नहीं है कि उनके बीच एक उच्च कोटिकी जीवात्मा साधनारत है । लोग उन्हें एक सन्यस्त गृहस्थके रूपमें जानकार उनका आदर करते थे; परन्तु उनकी साधना इतनी अच्छी है यह किसीको पता ही नहीं था ।
जब इस वर्ष अप्रैलमें मैं गयी तो पता चला अपनी साधनाके बल पर उन्होंने(श्री विद्याशंकर मिश्र ) ७० % आध्यात्मिक स्तर साध्य कर संतके गुरु पदपर आसीन हो गए । ऐसेमें उनका सत्कार करना आवश्यक था इसलिए त्रिदिवसीय प्रवचनके अंतिम दिवस उनके संत होनेकी उद्घोषणा कर दी । और वे सकुचाते हुए कह रहे थे “मैया, हमें प्रकट न करो गुप्त ही रहने दो” ऐसे होते हैं संत !!
वे देवराहा बाबासे १९६६में दीक्षित हुए थे और उनका नाम बाबाने चेतन दास रखा था । परम पूज्य बाबाने उन्हें पहले ही कहा था कि गृहस्थ जीवन बिताते हुए साधना करो, आत्मसाक्षात्कार हो जाएगा ।” संतोंकी वाणी तो ब्रह्मवाक्य होता है अतः उन्हें तो संत बनना ही था । इस प्रकार अनेक बार खरे अर्थमें उन्नत या संतोंका भान साधारण व्यक्तिको नहीं हो पाता है। तो ध्यानमें रखो कि संतोकी कोई विशेष स्थूल रूपमें पहचान नहीं होती वे सन्यासी भी हो सकते हैं और सद् गृहस्थ भी, वे किसी भी उम्रके हो सकते हैं, किसी भी जातिके हो सकते हैं एवं पुरुष या स्त्री भी हो सकते हैं। अतः संतोंको स्थूल मापदंडमें बांधना अनुचित है -तनुजा ठाकुर



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