गुरु पूजनीय क्यों होते हैं ?


गुरु प्रेमकी प्रतिमूर्ति होते हैं, उन्हें तो निर्जीव वस्तुओंसे भी इतना प्रेम होता है कि उसमें भी वे अपने गुरुके स्वरुप या ब्रह्मका दर्शन कर उनसे प्रेम करते हैं ! सजीव, निर्जीव, देव, दानव सब गुरुके इसी प्रेममय स्वरुपपर न्योछावर होनेको तत्पर रहते हैं; इसलिए उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश समतुल्य, ईश्वरके सगुण स्वरूप एवं परब्रह्म माना गया है !

गुरुका कार्य ही होता है, पहले साधक निर्माण करना और तत्पश्चात् शिष्य निर्माण करना, इस हेतु एक माली समान उन्हें अपने शिष्यका पोषण करना होता है और उसी क्रममें उसके मन, बुद्धि और अहंका लय करना होता है, यह प्रक्रिया जितनी साधक या शिष्यके लिए कष्टप्रद होती है, उससे अधिक गुरुके लिए होती है; क्योंकि जो निर्जीवको कष्ट नहीं पहुंचा सकते वे अपने ही भक्तको कैसे कष्ट पहुंचा सकते हैं; किन्तु माली जैसे पौधेके अनावश्यक भागको काटकर उसमें जल देकर उसकी पुनः बढनेकी प्रतीक्षा करता है, उसीप्रकार गुरु साधकके दोष और अहंपर वारकर, उस पर अपनी करुणामयी दृष्टिसे शक्तिपातकर उसमें पात्रता निर्माण करते हैं ! जैसे अपने हृदयको कठोर कर, मां बच्चेको, भविष्यके भयावह रोगोंसे संरक्षण हेतु टीका लगवाती है वैसे ही गुरु भी अपने शिष्यको स्वयंप्रकाशी बनाने हेतु उसके साथ कठोर प्रक्रिया करते हैं, जिसमें वे बाहरसे कठोरतासे वर्तन कर, आतंरिक रूपसे अपनी कृपारुपी दुग्धसे साधकका अध्यात्मिक पोषण करते हैं !

अपने गुरुके सन्दर्भमें, अपने जीवनमें मैंने इसे अनुभव किया है और यह शास्त्र सभी गुरुओंपर लागू होता है ! गुरुके इसी मातृत्व रूपके कारण उनके चरणोंकी धूलसे भी शिष्यका उद्धार हो जाता है ! – तनुजा ठाकुर (२४.५.२०१५)

 



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