गुरुभक्ति ऐसे करें !


जब कोई शिष्य सधाना करने लगता है और उसकी गुरुके प्रति भक्ति बढ्ने लगती है तब गुरु शिष्य के अंदर धैर्य, भक्ति, प्रेम, तडप, नम्रता और शरणागति जैसे दिव्य गुणोंको निखारनेके लिए उसे उसे अत्यंत कठोर परिस्थितिमें डाल देते है और यदि शिष्य इन दिव्य गुणोंके बलपर यशस्वी हो जाता है तो गुरु अपनी सम्पूर्ण थाती (ज्ञान, भक्ति और वैराग्य) शिष्यको दे देते हैंं। गुरु भक्ति कैसे करना चाहिए उस संबंधमें एक प्रेरक कथासे बोध लेंगे।
संदीपन नामक एक शिष्य था। वह काशी विश्वेश्वर मंदिरके सामने अपने गुरुसेवामें मग्न रहता था। उसके गुरु एक कुष्ट रोगी थे। वह दिन भर अपनी गुरुकी सेवा करता उनके घाव स्वच्छ करता उसमें औषधि लगाता, भिक्षा मांगकर गुरुको भोजन देता; परंतु गुरु उसके साथ विचित्र व्यवहार करते जब घावमें औषधि प्रेमसे लगाता तो गुरु कहते “तुम्हें मेरे घावसे घृणा होती है” , जब शिष्य भिक्षा मांगने जाता तो सडे गले और बासी भोजन राहमें ग्रहण कर लेता और गुरुके लिए जो अच्छा होता वह लेकर आता तब गुरु कहते “ राह में ही जो भी भिक्षामें अच्छा मिलता है उसे खा लेता है और मेरे लिए सडे-गले भोजन ले आता है “ संदीपन यह सब सुनकर कुछ नहीं कहता, मन ही मन नामजप करता था और आनंदपूर्वक गुरुसेवामें लीन रहता। वह गुरु सेवामें इतना मग्न हो गया था कि बारह वर्ष उसने मंदिरके अंदर जाकर काशी विश्वेश्वर भगवानके दर्शन भी नहीं कर पाया था । एक दिन साक्षात भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने उसकी परीक्षा लेनी चाही और कहा, “इस कोढीकी सेवा कर तुझे क्या मिला है आज तक, गालियां, लात और भिन्न प्रकारके लांछन, तू इस कोढीका साथ छोड मेरे साथ चल मैं तुझे वह दूंगा जिसकी तुमने कभी कल्पना भी नहीं की होगी”। संदीपनने नम्रतापूर्वक कहा “ मेरे श्रीगुरु मुझे सब कुछ देनेका सामर्थ्य रखते हैं मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए” । भगवान विष्णु उसकी गुरु भक्तिसे प्रसन्न हो उससे वरदान मांगनेको कहा। संदीपनने कहा “ यदि आप इतने ही प्रसन्न हैं तो मेरे गुरुको स्वस्थ कर दें”। विष्णु तथास्तु कहने ही वाले थे कि ही कोढी बने गुरुजी साक्षात शिवके रूपमें प्रकट हो गए और शिष्यका जीवन धन्य हो गया ! खरे अर्थमें सगुण संतोंकी आराधना और सेवा करना इस सृष्टिकी कठिनतम सेवा है और जिसने भी ऐसे किसी आत्मज्ञानीका हृदय जीत लिया वह परमपदको सहज ही पा लेता है -तनुजा ठाकुर



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