स्वयंको किसी गुरुका शिष्य घोषित करना अनुचित है !


कुछ साधक मुझसे कहते हैं, मैं फलां-फलां संतको अपना गुरु मानने लगा हूं; किन्तु आपकेद्वारा किसी संतको गुरु माननेसे आप उनके शिष्य बन गए, ऐसा नहीं है | जैसा व्यवहारमें कोई किसी लडकीसे प्रेम करे और उसे अपनी प्रेमिका माननेसे कुछ नहीं होता, उस लडकीने भी उस लडकेको अपना प्रेमी मानना चाहिए वैसे ही अध्यात्ममें भी गुरुने जब किसीको शिष्यके रूपमें स्वीकार कर लिया हो तो ही उन्होंने समझना चाहिये कि वे उनके शिष्य हैं |  स्वयं को किसीको गुरुका शिष्य घोषित करनेकी चूक साधकोंने नहीं करना चाहिए; क्योंकि अध्यात्ममें शिष्य पद, बहुत आगेका चरण है, शिष्य तो अपने गुरुका प्रतिरूप होता है, उसके सम्पूर्ण विश्व गुरु एवं गुरुकार्य तक ही व्याप्त होता है; अतः सर्वप्रथम साधक, अपने अंदर एक अच्छे साधकका गुण निर्माण करें, तत्पश्चात् शिष्य बनने हेतु अपने अंदर दिव्य गुणोंको आत्मासात करना चाहिए, इस हेतु अपना सर्वस्व गुरुकार्य या धर्मकार्य हेतु समर्पित कर वर्षों तक गुरुके शरणमें रहकर साधना करना पडता है | आजकलके लोगोंको गुरु और शिष्य दोनों ही शब्द अति सामान्य प्रतीत होते हैं, संभवतः इसे ही कलियुग कहते हैं |-तनुजा ठाकुर



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