गुरु, शिष्य एवं साधक

गुरु तत्त्व शिष्यकी श्रद्धा एवं पात्रता अनुरूप करता है कार्य


गुरु तत्त्व सर्वज्ञ होता है, इस भावके साथ साधनारत शिष्यको गुरुकी सर्वज्ञतासे सम्बन्धित अनुभूति सतत होती है वहीं विकल्पसे युक्त साधकको गुरु तत्त्वके विषयमें ऐसी अनुभूति नहीं होती है ….

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जीवनमुक्त होकर ही गुरुके प्रति खरी कृतज्ञता हो सकती है व्यक्त


सद्गुरु हमें जन्म और मृत्युके चक्रसे निकालकर ईश्वरसे साक्षात्कार कराते हैं, ऐसे सद्गुरुके ऋणसे कोई शिष्य भला कभी उऋण हो सकता है क्या ?

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ऐसे हैं हमारे श्रीगुरु !


न दी दीक्षा, न दिया विधिवत गुरुमन्त्र । एक दृष्टिसे ही डाला हृदयमें अखण्ड नामजपका सूक्ष्म भावयन्त्र ।। देखें ऐसे अनेक गुरु । एकत्रित कर भीड देते हैं गुरुमन्त्र । तथापि न सिखा पाते अध्यात्मका गूढ तन्त्र ।। दे दिया ज्ञान स्थूल और सूक्ष्म अध्यात्मका । दिए बिना ही गुरुमन्त्र ।। हैं ऐसी ऊंचाईपर हमारे […]

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समर्पित शिष्यके ऊपर नहीं लागू होता है पञ्च महाऋण !


समर्पित शिष्यके ऊपर नहीं लागू होते हैं पञ्च महाऋण ! सामान्य गृहस्थ या व्यक्तिको, देव, ऋषि, पितर, अतिथि एवं समाजके (या भूत ऋणके) प्रति पञ्च ऋणका भुगतान करना पडता है, इस हेतु शास्त्रोंमें पञ्च महायज्ञका विधान बताया गया है, तभी उनका जीवन सुखी होता है ।  इसके विपरीत जो भी शिष्य पूर्ण रूपेण गुरुके शरणागत […]

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निर्विकल्प एवं निष्काम भावसे सेवा करनेवाले शिष्य होते हैं गुरुको अतिप्रिय


गुरुको, उनकी स्तुति करनेकी अपेक्षा, निर्विकल्प एवं निष्काम भावसे सेवा करनेवाले शिष्य अधिक प्रिय होते हैं ।

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वैदिक संस्कृतिके संरक्षक हैं संतवृन्द


वैदिक हिन्दू संस्कृति यदि आज तक इतने सारे आसुरी आक्रमणोंके पश्चात् भी यदि अंशमात्र जीवित है तो वह मात्र गुरु-शिष्य परम्पराके कारण ही है…..

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साधक किसे कहते हैं – (भाग – १)


किसी भी परिस्थितिमें जो गुरु या ईश्वरसे कोई उपालम्भ (शिकायत) नहीं रखता, अपितु उस परिस्थितिको ईश्वरने कुछ सिखाने हेतु निर्माण किया है, यह सोचकर प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी कृतज्ञताका भाव रख जो साधनारत रहता है, वह साधक कहलानेका अधिकारी है ! – तनुजा ठाकुर

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सद्गुरु कैसे देते हैं शिष्यको निर्गुणकी अनुभूति ?


सद्गुरुको ज्ञात होता है कि किस साधकके लिए सगुण साधना आवश्यक है और किसने निर्गुण तत्त्वकी साधना करनी चाहिए ! खरे अर्थमें सद्गुरु तो वह होते हैं जो अपने निज स्वरूपमें या स्थूल स्वरूपमें भी अपने शिष्यको नहीं बद्ध करते हैं  तभी तो सद्गुरुको निर्गुण परब्रह्मकी अनुभूति, शिष्यको प्रदान करनेके अधिकारी होते हैं। जो अपने […]

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खरे शिष्यको गुरुकी थाती स्वतः ही हो जाती है प्राप्त


जैसे एक सुपुत्रको पिता द्वारा अर्जित धन उसे  स्वतः ही प्राप्त हो जाता है वैसे ही खरे शिष्यको गुरुके द्वारा अर्जित ज्ञान, भक्ति और वैराग्यकी थाती स्वतः ही सूक्ष्मद्वारा प्राप्त हो जाती  हैं ! समाज स्थूलकी भाषा समझता है; अतः पिता द्वारा अर्जित धन यदि पुत्रको मिले तो  उसे वह समझमें आता है; परंतु गुरुद्वारा […]

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संत और गुरु में क्या अंतर होता है ?


संतोंमें भी स्तर होते हैं , गुरुपद के संत (७० प्रतिशत  आध्यात्मिक स्तर) से शक्तिके स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं, सद्गुरु पदके संत (८०% आध्यात्मिक स्तर) उसके अगले स्तरके होते हैं और उनसे आनंदके स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं  और वह शक्तिके स्पंदनसे अधिक सूक्ष्म  होते हैं और सबसे ऊपर परात्पर पदके संत (९० % आध्यात्मिक स्तर) के […]

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